Bhartiya Rajyon ke Prati British Niti - ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार करने हेतु आई थी। परंतु यहाँ के देशी शासकों की आपसी वैमनस्यता एवं कमजोरियों का फायदा उठाकर धीरे धीरे उसने भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल पर कम्पनी का आधिपत्य स्थापित हो गया। इसके बाद कम्पनी साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षी हो गई तथा साम्राज्यवादी विचारों से सदैव प्रेरित रही। उसका उद्देश्य भारतीय देशी राज्यों को ब्रिटिश आधिपत्य में लाना रहा जिससे ब्रिटेन के राजनीतिक व आर्थिक हितों की वृद्धि हो । 19वीं शताब्दी के अंत तक सभी भारतीय रियासतें अंग्रेजी प्रभुत्व के शिकंजे में आ चुकी थी।
भारतीय राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति
अंग्रेजी प्रशासन की भारतीय रियासतों के प्रति नीति के आधार पर सम्पूर्ण ब्रिटिशकाल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है
रिंग फेंस (ring fence) या घेरे की नीति का काल (1757_1813 ई.)
ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने 1757 ई. में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के साथ हुए प्लासी के युद्ध के बाद से ही भारतीय रियासतों के साथ संबंधों में रिंग फेंस (Ring Fence) की नीति का अनुसरण किया। कम्पनी की इस नीति का आधार अहस्तक्षेप तथा सीमित उत्तरदायित्व था। इस नीति का निर्माता वारेन हेस्टिंग्स को माना जाता है। इस काल में कम्पनी ने भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति का अनुसरण किया। उस दौरान कम्पनी की नीति अन्य देशी रियासतों से संबंध बढ़ाकर उन्हें शक्तिशाली रियासतों के विरुद्ध बफर स्टेट के रूप में रखने की थी।
कम्पनी के पास उस समय इतनी शक्ति एवं साधन नहीं थे जिससे कि वह देशी रियासतों से लड़कर उन्हें अपने अधीन कर सकती। परंतु इस रिंग फेंस की नीति के काल में भी अहस्तक्षेप की नीति का पालन कठोरता से नहीं किया गया। जहाँ कहीं कम्पनी को अपने हित में आवश्यकता महसूस होती थी वहीं तत्कालीन गर्वनर जनरल की इच्छानुसार इस नीति को दरकिनार कर कम्पनी देशी रियासतों के कार्यों में हस्तक्षेप कर देती थी। इसका उदाहरण है, वारेन हेस्टिंग्स का बनारस के राजा चेतसिंह एवं अवध की बेगमों से को गई अनुचित माँगें एवं लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा टीपू सुल्तान पर आक्रमण कर उसके आधे राज्य को हस्तगत करना।
रिंगफेंस नीति के काल में अंग्रेजी कम्पनी द्वारा भारतीय रियासतों से किये गये संबंध बराबरी पर आधारित थे
कम्पनी द्वारा देशी राजाओं से की गई संधियों में अंग्रेजी कम्पनी के सर्वोच्च शक्ति होने का दावा नहीं किया गया था।
संधियों में एक-दूसरे की इच्छाओं एवं सुविधाओं का दोनों पक्षों द्वारा पूरा ध्यान रखे जाने का प्रावधान किया जाता था।
प्रत्येक संधि में रियासती शासक को पूर्णरूप से जनता पर अपनी पूर्ण सत्ता रखने की गारंटी दी गई थी तथा एक-दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप न करने का विश्वास दिलाया गया था।
सन् 1798 में लॉर्ड वैलेजली गवर्नर जनरल बनकर भारत आये। उन्होंने अनुभव किया कि कम्पनी सरकार की भारतीय रियासतों में हस्तक्षेप न करने की नीति सही नहीं है। देश में उस समय कोई एक शक्तिशाली रियासत नहीं थी। लॉर्ड वैलेजली ने निर्णय किया कि ऐसे समय में कम्पनी को देश में प्रभुत्वशाली शक्ति बनना चाहिए। अपने इसी उद्देश्य को पूर्ण करने हेतु वेलेजली ने देशी रियासतों के साथ संबंध कायम करने हेतु सहायक संधि प्रणाली प्रारंभ की।
सहायक संधि प्रणाली (Subsidiary Alliance)
लॉर्ड वेलेजली ने कम्पनी की शक्ति एवं साधनों में वृद्धि करने हेतु एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया और वह था- देशी रियासतों के शासकों से सहायक संधियाँ करना। सहायक संधि की मुख्य बातें निम्न थी-
सहायक संधि के तहत् उस रियासत में सुरक्षा एवं सहायता हेतु अँग्रेजी । फौजें रखी जाती थी, परंतु उनके खर्चे हेतु या तो शासक को एक निश्चित धनराशि कम्पनी को देनी पड़ती थी या रियासत का कुछ का काल भाग कम्पनी के सुपुर्द करना पड़ता था, जिसकी आय से कम्पनी की फौज का खर्च चलाया जा सके।
संबंधित शासक किसी विदेशी या अन्य शासक के साथ सीधे संबंध स्थापित नहीं कर सकता था, उसे इस हेतु कम्पनी को मध्यस्थ बनाना होता था।
किसी शासक का अन्यं रियासत के शासक के साथ मतभेद होने पर उसे कम्पनी को मध्यस्थ बनाना आवश्यक था।
अपनी रियासत से अंग्रेजों के अलावा शेष सभी विदेशियों (फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली आदि) को बाहर निकालने की भी शर्त जोड़ी गई थी।
इन सभी के बदले अंग्रेजी सरकार उस रियासत की बाहरी आक्रमण तथा आंतरिक संकटों से सुरक्षा करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेती थी।
रियासत को एक अंग्रेजी रेजीडेण्ट रखना पड़ता था जिसका रियासत पर बड़ा प्रभाव रहता था।
इस प्रकार वैलेजली की सहायक संधि प्रणाली के तहत् देशी रियासतों को अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदत्त सुरक्षा की गारन्टी के बदले अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता उनके हाथों में सौंपनी पड़ती थी।
लॉर्ड वैलेजली की इस प्रणाली के तहत् सर्वप्रथम हैदराबाद के निजाम ने 1798 में अंग्रेजी सरकार के साथ सहायक संधि की। इस संधि के तहत् धीरे-धीरे देश की अधिकांश देशी रियासतें आ गई। राजस्थान में भी लगभग सभी देशी राजाओं ने 1803 ई. के आसपास कम्पनी सरकार से सहायक संधियों कीं।
इस प्रकार सहायक संधि प्रणाली के तहत् अंग्रेजी कम्पनी का देशी रियासतों के खर्चों पर एक बड़ी फौज रखना संभव हुआ तथा अपने राजनीतिक उद्देश्यों को इस सैनिक शक्ति के माध्यम से पुष्ट करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस प्रणाली का परिणाम यह हुआ कि सुरक्षित एवं स्वतंत्र देशी रियासतों की आन्तरिक प्रशासन एवं आर्थिक व्यवस्था नष्ट होने लगी।
मैसूर का चौथा एवं अंतिम युद्ध
लॉर्ड वैलेजली के समय मैसूर का चौथा एवं अंतिम युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज सेना ने टीपू सुल्तान हरा दिया। मई 1799 में युद्ध में टीपू सुल्तान मारा गया। उसका आधा राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला दिया गया एवं आधा राज्य मैसूर राजपरिवार के एक बालक को देकर गद्दी पर बैठा दिया गया।
अक्टूबर, 1799 में लॉर्ड वैलेजली ने तंजौर के राजा से संधि की जिसमें राजा ने व्यावहारिकरूप से शासन व्यवस्था कम्पनी को सौंप दी। इसी प्रकार सूरत के शासक को पेंशन स्वीकृत कर हटा दिया गया तथा वहा का नियंत्रण कम्पनी सरकार ने अपनी हाथों में ले लिया।
कर्नाटक के नवाब के साथ संधि की गई। 1801 में नवाब की मृत्यु पर वहाँ की सैनिक एवं नागरिक प्रशासन की व्यवस्था वैलेजली ने अंग्रेज सरकार के हाथों में ले ली। नये नवाब को रियासतों की आय का बीस प्रतिशत. भाग दिये जाने का निश्चय किया गया। अवध के नवाब के साथ भी लॉर्ड वैलेजली ने संधि की तथा कुछ समय बाद उसके कुछ प्रदेशों को ले लिया।
इस प्रकार इस कालावधि में लॉर्ड वैलेजली ने कम्पनी सरकार की अहस्तक्षेप की नीति को आंशिक रूप से त्यागकर कम्पनी की राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर दी।
अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (Policy of Subordinate Isolation) (1813-1858 ई.)
लार्ड हेस्टिंग्ज 1813 में गवर्नर जनरल बनकर भारत आये। उन्होंने रिंगफेंस की नीति का पूर्णरूप से परित्याग कर भारतीय रियासतों को अँग्रेजी प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उन्होंने भारतीय रियासतों के साथ संबंधों में नई नीति 'अधीनस्थ-पार्थक्य की नीति' प्रारंभ की। वे इस नीति के साथ देशी रियासतों को अंग्रेजी राज्य में मिलाने के बिल्कुल विरुद्ध थे।
अधीनस्थ पार्थक्य की नीति के तहत् हेस्टिंग्स ने देशी रियासतों को अंग्रेजी शासन के अधीन करने की नीति शुरू की परन्तु उनका आंतरिक शासन स्वयं रियासतों को करना था। उन्हें अंग्रेजी साम्राज्य में नहीं मिलाया जाता था। ब्रिटिश सरकार रियासत के प्रशासन से अपने को अलग रखती थी। उन्होंने अपने समय में मध्य भारत की 145, काठियावाड़ की 145 एवं राजपूताना की 20 देशी रियासतों को इन संधियों द्वारा कम्पनी शासन के अधीन कर लिया।
लॉर्ड हेस्टिंग्ज के पश्चातवर्ती गवर्नर जनरलों ने उनकी अलगाव की नीति का पूर्णत: पालन नहीं किया। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने प्रारंभ में अहस्तक्षेप (अलगाव) की नीति का अनुसरण किया। हैदराबाद, जयपुर, भोपाल आदि रियासतों में हुए आंतरिक विरोधों में कम्पनी प्रशासन ने कोई रुचि नहीं ली तथा अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया। परन्तु बाद में मैसूर, कुर्ग, आसाम के जेटिया और कचार, अवध, कर्नूल (मद्रास प्रेसीडेंसी में) आदि रियासतों में हस्तक्षेप कर उन्हें ब्रिटिश शासन के अधीन कर लिया गया।
लॉर्ड डलहौजी 1848 में भारत का गवर्नर जनरल बने। वे 1856 तक रहे। उनके शासनकाल में देशी राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की नीति का अनुसरण किया गया। इसलिए उन्होंने भारतीय राज्यों को भारत के ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के प्रत्येक उपयोगी अवसर और तरीके का लाभ उठाया। उसने देशी रियासतों के मामले में व्यपगत का सिद्धान्त (Doc- trine of lapse) लागू किया।
व्यपगत सिद्धान्त (Doctrine of Lapse )
इसके अनुसार यदि किसी राज्य का शासक बिना जीवित उत्तराधिकारी के मृत्यु को प्राप्त हो जाता था तो उसका राज्य भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया जाता था।
शासक को बच्चा गोद लेने की अनुमति नहीं थी।
इसके तहत कुप्रबंध के आधार पर भी राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया जाता था।
विलय की नीति के तहत डलहौजी ने 1848 ई. में सतारा, 1849 ई. में जैतपुर एवं सम्भलपुर, 1850 में बघाट, 1852 में उदेपुर (छत्तीसगढ़), 1854 में झाँसी एवं 1854 में नागपुर रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। अवध रियासत को कुप्रबंध के आधार पर 13 फरवरी, 1856 को ब्रिटिश राज्य में मिला दिया गया। इसके अलावा युद्ध द्वारा भी कई क्षेत्रों को विजित कर ब्रिटिश राज्य में मिलाया गया। डलहौजी ने 1849 ई. में पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया।
इस प्रकार इस काल के प्रारंभिक वर्षों में ब्रिटिश सरकार देशी रियासतों को केवल अपने प्रभुत्व के अधीन करने पर बल देती थी, उनके प्रशासनिक आदि मामलों में अहस्तक्षेप की नीति अपनाई गई थी, परंतु बाद के वर्षों में येन-केन प्रकारेण उन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने के प्रयत्न किये गये।
अधीनस्थ संघ की नीति (Policy of Subordinate Union-1858-1935 ई.)
1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857 की क्रांति) के बाद भारतीय रियासतों के साथ ब्रिटिश नीति को 'अधीनस्थ संघ की नीति' की संज्ञा दी जाती है। 1857 के बाद भारतीय देशी रियासतों को अलग-अलग रखने की नीति का परित्याग कर उन्हें ब्रिटिश शासन के नजदीक लाने की नीति अपनाई गई। 1857-58 के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह नतीजा निकाला कि इस क्रांति में यदि देशी नरेशों ने ब्रिटिश सरकार का साथ न दिया होता तो भारत से ब्रिटिश सत्ता समाप्त हो चुकी होती। इस धारणा ने अंग्रेजी सरकार के भारतीय राजाओं के प्रति दृष्टिकोण को बदल दिया। 1858 के बाद भारत का शासन कम्पनी से हटाकर सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन कर दिया गया। अब अंग्रेजी सरकार द्वारा यह नीति अपनाई गई कि भारतीय राजाओं के साथ अच्छे संबंध बनाये जाएँ ताकि वे समय पर काम आ सकें। रानी विक्टोरिया की 1858 की उद्घोषणा में यह घोषित किया गया कि
ब्रिटिश सरकार अब देशी रियासतों को अपने राज्य में नहीं मिलाएगी।
देशी राजाओं के अधिकारों एवं प्रतिष्ठा को ब्रिटिश शासन के समान समझा जाएगा।
कम्पनी द्वारा नरेशों के साथ किये गये समझौतों व संधियों का पालन करना ब्रिटिश क्राउन के लिए अनिवार्य होगा। भारतीय शासकों को बच्चा गोद लेने के अधिकार की गारंटी दी गई।
देशी रियासतों को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाने का आश्वासन दिया गया जब तक कि वे ब्रिटिश सम्राट के प्रति आज्ञाकारी रहेंगें।
देशी रियासतों को विदेशी राज्य अथवा प्रजाजन से सीधे संबंध रखने की अनुमति नहीं थी। ऐसा ब्रिटिश सरकार के माध्यम हो सकता था। उन्हें ब्रिटिश सम्राट के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता की शपथ लेनी होती थी।
इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने देशी रियासतों पर कब्जा करने की अपनी नीति का परित्याग कर दिया, बल्कि कुशासन की स्थिति में वहाँ अच्छी सरकार, सुरक्षा, कानून और व्यवस्था स्थापित करना अपना कर्त्तव्य निश्चित कर लिया।
इस प्रकार प्रथम वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने देशी राज्यों के प्रति नई नीति का सूत्रपात किया जो 19वीं शताब्दी के अंत तक कायम रही। कैनिंग के परवर्ती वायसरायों ने भी उनकी इस नीति का अनुसरण किया।
.देशी राज्यों के प्रति 1858 के बाद की ब्रिटिश नीति के परिणाम स्वरूप राज्यों एवं सर्वोच्च ब्रिटिश सत्ता के बीच संबंधों की एक नई छवि बनी। भविष्य में भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु साधन के रूप में देशी राज्यों का उपयोग करने की नीति अपनाई गई। इसके साथ ही नरेशों से यह अपेक्षा की गई कि वे अपने शासन को सुव्यवस्थित, करें एवं जनता के कल्याण के प्रति समर्पित जिम्मेदार शासक के रूप में कार्य करें। परंतु अधिकांश देशी राजा विलासितापूर्ण, आमोद- प्रमोद, मौज-मस्ती, शानो-शौकत एवं विदेशी यात्राओं में अपना समय व्यतीत करते थे। उन्हें अपनी रियाया ( जनता) की परेशानियों से कोई मतलब नहीं रह गया था। अपनी जनता को कष्ट में किसी प्रकार की राहत देने के बजाय वे जनता के साथ कठोरता एवं निर्दयता का व्यवहार करते थे।
उक्त कारण से भारत में सर्वोच्च सत्ता होने के नाते ब्रिटिश सरकार ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में रियासतों के कुप्रशासन के मामलों, कलहपूर्ण उत्तराधिकार, जनता के विद्रोहों, सतीप्रथा एवं बाल हत्या जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने हेतु रियासतों में प्रयत्क्ष रूप से हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया। धीरे-धीरे ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करने की प्रथा का जन्म हुआ। ब्रिटिश सरकार राज्य के दीवानों की नियुक्ति करने लगी।
रियासतों में नियुक्त ब्रिटिश रेजीडेन्ट रियासतों के आंतरिक मामलों में पूरा हस्तक्षेप करते थे। शासक के नाबालिक होने पर अंग्रेज सरकार शासन कार्य चलाने हेतु ब्रिटिश रीजेन्ट नियुक्त करती थी और रियासत की समस्त बागडोर उसके हाथ में होती थी।
उक्त सभी बातों के होते हुए भी ब्रिटिश सरकार सर्वोच्च प्रभुत्व सम्पन्न होने के कारण कुप्रशासन या अन्य कारणों से देशी शासकों को हटा सकती थी, उनके राज्य पर अधिकार कर सकती थी। कोई भी शासक ब्रिटिश सरकार की अनुमति के बिना विदेशी उपाधियों को स्वीकार नहीं कर सकता था एवं स्वयं भी कोई उपाधि नहीं दे सकता था। शासकों के लिए उत्तराधिकार कर देना आवश्यक था। ब्रिटिश सरकार कम आयु के राजकुमारों की शिक्षा आदि का नियंत्रण करने के लिए अपने संरक्षण के अधिकार का पूरा प्रयोग करती थी।
इस कालावधि में देशी राजाओं को अपने क्षेत्र के लिए महत्त्वपूर्ण कानून बनाने से पूर्व भारतीय ब्रिटिश सरकार की अनुमति लेनी होती थी। उन्हें स्वयं के सिक्के चलाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया था। इस प्रकार 1858 में देश का शासन सीधे ब्रिटिश ताज को हस्तातंरित होने के बाद प्रारंभ में कुछ वर्षों तक तो देशी राजाओं को अधिक महत्त्व दिया गया उनके साथ 1858 की सामाज्ञी की उद्घोषणा में किये गये वादे निभाये जाते रहे, परंतु धीरे-धीरे उनके अधिकार कम होते गये। उन्हें पूर्णत: ब्रिटिश ताज के अधीन रहने को विवश कर दिया गया। यहाँ तक की उत्तराधिकार के प्रश्न आदि का निर्णय एवं अनुमोदन भी ब्रिटिश सरकार ही करती थी।
इस प्रकार नरेशों को संरक्षण की गारंटी देकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पूर्णत: अपना आज्ञाकारी बना लिया तथा साथ ही दमनकारी शासकों के विरुद्ध जनता के कल्याण का पोषक होने का दावा करके वह जनता की रक्षक के रूप में भी दिखाई देने लगी। 19वीं शताब्दी के अंत तक नरेश इतने अशक्त बना दिये गये कि वे अपने आंतरिक मामलों में भी आक्रमक व अनुचित ब्रिटिश हस्तक्षेप का विरोध नहीं कर सकते थे। जो नरेश सुधरते नहीं थे एवं रियासत के प्रशासन में सुधार नहीं करते थे, उनके दुश्प्रशासन का दण्ड राज्य पर कब्जा करके नहीं बल्कि राजा को पदच्युत करके दिया जाता था। लॉर्ड कर्जन के शासन काल में देशी राज्यों के अंदरूनी मामलों में ब्रिटिश हस्तक्षेप अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था ।
लॉर्ड मिण्टो
लॉर्ड मिण्टो के वायसराय रहने के दौरान ब्रिटिश सरकार एवं देशी राज्यों के बीच संबंधों पुन: में एक नया मोड़ आया। मिण्टो ने महसूस किया कि बंगाल विभाजन के बाद उग्र रूप धारण करने वाली राष्ट्रवादी शक्तियों का मुकाबला देशी नरेश ही कर सकते हैं।
अतः उसने देशी नरेशों को पुन: अंग्रेज सरकार के पक्ष में लाने की नीति का अनुसरण किया ताकि वे ब्रिटिश विरोधी चुनौतियों का मुकाबला करने में सहायता दे सकें। इस प्रकार देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नई नीति का सूत्रपात हुआ और कर्जन की आक्रमक एवं तानाशाही नीति का परित्याग कर दिया गया उसने राज्यों के प्रशासन को सुधारने हेतु स्वयं हस्तक्षेप करने की जगह ऐसे प्रयास किये कि संबंधित शासक स्वयं सुधारों का काम शुरू करें। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सर्वोच्च ब्रिटिश सत्ता एवं नरेशों के बीच दोस्ती और गहरी हो गई। नरेशों ने अंग्रेजों के युद्ध प्रयत्नों में बहुमूल्य योगदान दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति तक ब्रिटिश सरकार की देशी रियासतों के प्रति यही नीति कमोबेश अपनाई गई। उनके आंतरिक मामलों में तब तक हस्तक्षेप नहीं
किया गया जब तक कि यह बहुत ही आवश्यक नहीं हो गया।
इस प्रकार 1858 के बाद के वर्षों में देशी नरेशों के प्रति अंग्रेजों की नीति में दो अन्तर्विरोधी तत्व रहे, जहाँ एक ओर एकल कार्यभार रखने (अहस्तक्षेप की नीति) का प्रयत्न किया गया वहीं दूसरी ओर देशी राज्यों को राष्ट्रीयता विरोधी प्रतितोलक के रूप में प्रयोग किया गया।
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