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Jain Dharm ka Dtihas in Hindi -ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म के साथ-साथ हमारे देश में एक अन्य धार्मिक आन्दोलन प्रभावी हुआ जिसका बीजारोपण पहले ही हो चुका था,परन्तु जिसे जन-जन तक पहुँचाने एवं अत्यधिक विस्तृत करने का श्रेय जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को जाता है। वे बुद्ध के समकालीन थे। वर्द्धमान महावीर ने तत्समय समाज में व्याप्त कर्मकाण्डों एवं अंधविश्वासों का विरोध किया तथा मोक्ष प्राप्ति का नया मार्ग बताया। 

तीर्थंकर

Jain Dharm ka Dtihas in Hindi


जैन धर्म के संस्थापक एवं ज्ञान प्राप्त महात्माओं को तीर्थंकर माना गया है। यह शब्द 'तीर्थ' से बना है, जिसका अर्थ उस निमित्त से है, जो मनुष्य को संसार सागर से पार उतारे (अर्थात् सांसारिक जीवन के कर्मफलों से मुक्ति का उपाय बताने वाला)। ऐसे निमित्त को निर्मित्त करने वाले को 'तीर्थकर" कहते हैं।

Jain Dharm ka Dtihas in Hindi

जैन धर्म में 24 तीर्थकर हुए हैं, जिनमें ऋषभदेव (प्रथम तीर्थंकर), पार्श्वनाथ (23वें तीर्थकर) व महावीर स्वामी (24वें तीर्थकर) मुख्य हैं। जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव जम्बू द्वीप के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे। वे भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे। इनका प्रतीक चिन्ह सॉड है। पुराणों में इन्हें नारायण का अवतार माना गया है।

ऋग्वैदिक ऋचाओं में दो जैन तीर्थंकर ऋषभ तथा अरिष्टनेमि का स्पष्ट उल्लेख है। कुछ विद्वान मोहनजोदड़ो में प्राप्त योगी की मूर्ति का तादात्म्य ऋषभदेव से स्थापित करते हैं। यजुर्वेद में दूसरे तीर्थंकर ' अजितनाथ' का उल्लेख मिलता है। श्रीमदभागवत में भगवान ऋषभदेव का वर्णन है 

पार्श्वनाथ

पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थकर थे, जिनका जन्म महावीर स्वामी के 250 वर्ष पूर्व 8वीं सदी ई.पू. में हुआ था।
पिता : अश्वसेन, काशी (वाराणसी) इक्ष्वाकुवंशी नरेश।
माता : वामा, 
पत्नी : प्रभावती (कुशस्थल देश की राजकुमारी)
30 वर्ष की आयु में गृह-त्याग 

सम्मेद शिखर पर्वत (वर्तमान झारखण्ड राज्य के गिरडिह जिले में) पर तपस्या के 84वें दिन ज्ञान प्राप्ति माता वामा एवं पत्नी प्रभावती को सर्वप्रथम अपने धर्म में दीक्षित किया 
चार उपदेश - (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) अपरिग्रह

पार्श्वनाथ ने कायाक्लेश और तपस्या से मोक्ष प्राप्ति पर बल दिया था तथा अपने अनुयायियों को सफेद वस्त्र पहनने का आदेश दिया था।

पार्श्वनाथ के अनुयायियों को 'निर्ग्रन्थ' (सांसारिक बंधनों से मुक्त) कहा जाता था। इन्होंने नारियों को अपने धर्म में प्रवेश दिया।
पार्श्वनाथ का प्रतीक चिन्ह 'सर्प' है। पाश्वनाथ को 100 वर्ष की अवस्था मैं सम्मेद शिखर पर्वत पर निर्वाण प्राप्त हुआ था।

महावीर

जैन धर्म के 24वें व अंतिम तीर्थकर महावीर स्वामी का जन्म 599 ई.पू. में कुण्डग्राम (वैशाली, वर्तमान बिहार) में हुआ। कुछ पुस्तकों में इनका जन्म 540 ई.पू. होना बताया गया है।
पिता  सिद्धार्थ (वज्जिसंघ गणराज्य के ज्ञातृक कुल के प्रमुख)
माता: त्रिशला (वैशाली राज्य के प्रसिद्ध लिच्छवी राजा चेटक की बहन)
बचपन का नाम : वर्द्धमान
पत्नी : यशोदा
पुत्री : अणोज्जा (प्रियदर्शना)           
दामाद :जामालि

वर्द्धमान ने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् 30 वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से अनुमति लेकर संन्यास लिया।

12 वर्षों की कठोर तपस्या तथा साधना के पश्चात् 13वें वर्ष में जुम्भिक ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसी समय वे केवलिन, 'जिन्' (विजेता), अर्हत् (योग्य, पूजनीय) 'महावीर' (अतुल पराक्रमी) और निग्रंथ (बन्धन रहित) कहलाये तथा धर्म जैन धर्म कहलाया।

जैन धर्म के प्रचार हेतु महावीर स्वामी ने पावापुरी में जैन संघ की स्थापना की।
महावीर के प्रथम शिष्य उनके दामाद जामालि बने।
भगवान महावीर की प्रथम जैन भिक्षुणी चम्पा नरेश दधिवाहन की पुत्री चन्दना बनी थी।

जैन धर्म में तत्समय प्रचलित वैदिक यज्ञों, ब्राह्मणवादी कर्मकाण्डों एवं अंधविश्वासों का विरोध किया तथा वर्ण व्यवस्था व जाति व्यवस्था को नकार दिया। 30 वर्षों तक धर्म का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में 527 ई.पू. (कुछ पुस्तकों में 468 ई. पूर्व) में भगवान महावीर ने राजगृह के समीप पावापुरी में राजा हस्तिपाल के सानिध्य में शरीर त्याग दिया, उनकी मृत्यु को जैनमत में निर्वाण कहा गया है ।                                          • महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन जीवित बचा जो जैनसंघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना।

महावीर के सिद्धान्त एवं शिक्षाएँ 

अनिश्वरवादी 

जैन धर्म ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता। यह नास्तिक दर्शन माना जाता है। इसमें ईश्वर को सृष्टि का निर्माणकर्ता नहीं मानते। भगवान महावीर ने सृष्टि को अनादि, अनंत व नित्य बताया है। उन्होंने कहा कि भौतिक बंधनों एवं कर्मों से मुक्ति ईश्वर की कृपा से नहीं मिलती।

जैन मत के अनुसार सृष्टि अनादि और अनन्त है।

महावीर का आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धान्त तथा कर्म के सिद्धान्त में विश्वास था। जैन धर्म आत्मवादी है। जैन धर्म में आत्मा के अमरत्व (अमरता) को स्वीकार किया गया है। इसके अनुसार आत्मा पूर्ण एवं निर्विकार होती है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु में आत्मा का अस्तित्व (विद्यमानता) है। परन्तु यह प्रत्येक जीव में भिन्न-भिन्न होती है। मनुष्य की आत्मा की शक्ति कर्मबंधन से क्षीण हो जाती है। कर्मबंधन में बंधा जीव तीर्थंकरों द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करके ही संसार के भौतिक बंधनों से मुक्ति पा सकता है।
जैन धर्म निवृत्ति मार्गी है। यह सांसारिक जीवन को अत्यधिक वासनाओं एवं कामनाओं से परिपूर्ण व दुःख मूलक मानता है।

त्रिरत्न 

भगवान महावीर के अनुसार आत्मा को कर्म के बंधन से मुक्त करने के लिए (मोक्ष प्राप्ति हेतु) त्रिरत्न आवश्यक हैं, जो निम्न हैं
1. सम्यक् ज्ञान - संदेह रहित व वास्तविक ज्ञान जो कि पूर्ण ज्ञान हो तथा सत् व असत् में भेद करने वाला हो।
2. सम्यक् दर्शन (सम्यक् श्रद्धा)- जैन तीर्थंकरों में विश्वास रखना। सम्यक् दर्शन का अर्थ है सत् में पूर्ण विश्वास व आस्था रखना अर्थात् जैन तीर्थकरों एवं उनके उपदेशों में सत् के दर्शन करना एवं उनके प्रति सत्य श्रद्धा रखना।
3. सम्यक् चरित्र (सम्यक् आचरण)- पंच महाव्रत का पालन । 

जैन धर्म के अनुसार सम्यक् चरित्र का अभिप्राय है भौतिक जगत के विषयों के प्रति अनासक्ति व समभाव अर्थात् सुख एवं दुःख के प्रति उदासीनता का भाव तथा नैतिक एवं सदाचारपूर्ण सरल एवं संयमी जीवन-यापन करना। ऐसा करने से ही मनुष्य निरन्तर जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा पा सकता है।

पंच महाव्रतः

1 अहिंसा : मन, कर्म तथा वचन से किसी के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जिससे उसे दुःख अथवा कष्ट हो।
2. सत्य : मनुष्य को सदैव मधुरता के साथ सत्य बोलना चाहिए। क्रोध तथा भय के समय मौन तथा बिना विचारे नहीं बोलना चाहिए।
3. अस्तेय : चोरी नहीं करना।
4. अपरिग्रह : संग्रह नहीं करना।
5. ब्रह्मचर्य भोग वासना से दूर रहकर संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना।

नोट: प्रथम चार महाव्रतों का प्रतिपादन 23 वें तीर्थकर पार्श्वनाथ ने किया था। इसमें पाँचवाँ एवं अंतिम महाव्रत भगवान महावीर ने जोड़ा।
महावीर वेदों के प्रभुत्व को अमान्य करार दिया। वे वेदों की श्रेष्ठता को नहीं स्वीकारते।

उन्होंने व्रत, उपवास व तपस्या पर अत्यधिक बल दिया। स्यादवाद (अनेकांतवाद) का सिद्धान्त : स्यादवाद 'ज्ञान की सापेक्षता' का सिद्धान्त है। इस मत के अनुसार किसी वस्तु के अनेक धर्म (पहलू) होते है तथा व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि द्वारा केवल कुछ ही पहलूओं को जान सकता है। अत: सभी विचार अंशत: सत्य होते हैं। पूर्ण ज्ञान तो कैवलिन के लिए ही सम्भव है। जैन धर्म में तत्वज्ञान को पृथक-पृथक दृष्टिकोण से देखा जाता है, क्योंकि प्रत्येक काल में या प्रत्येक दशा में जीव का ज्ञान एक सा नहीं हो सकता, यह भिन्न-भिन्न होता है। इसी तत्त्व ज्ञान के जैन धर्म में 7 प्रकार बताये गये हैं
    
(1) शायद है (2) शायद नहीं है (3) शायद है और नहीं है (4) कहा नहीं जा सकता (5) शायद है किन्तु कहा नहीं जा सकता (6) शायद नहीं है और कहा नहीं जा सकता है (7) शायद है नहीं है और कहा नहीं जा सकता। किसी भी पदार्थ के विषय में ये सातों ज्ञान तत्त्व ( भंग यथार्थ हैं तथा प्रत्येक पदार्थ को अनेकांत सिद्ध करते हैं। जैन धर्म में इसको स्यादवाद या अनेकातंवाद (सप्तभंगी नय) कहा जाता है। कोई भी पदार्थ एकांततः सत्य नहीं है। उसमें संदेह का भाव विद्यमान है, न वह सर्वथा सत् है न सर्वथा असत् ।

जैन धर्म के सिद्धान्तों में निवृत्ति मार्ग का प्रमुख स्थान है जिसके माध्यम से व्यक्ति संसार की तरह-तरह की गंदी आदतों और वासनाओं से मुक्त हो जाता है। जैन धर्म में ईश्वर को न मानकर 'कर्म', को प्रधानता दी गई है। जैन सिद्धान्त के अनुसार जीव में अजीव का प्रवेश रोकना चाहिए और जो प्रवेश कर चुका है उसे निकालना चाहिए। जीव (आत्मा) में अजीव के प्रवेश को रोकना 'संवर' कहलाता है तथा अजीव के प्रवेश को निकालने की क्रिया को 'निर्जरा' कहा जाता है। इन दोनों क्रियाओं का फल ही'मोक्ष' है। कर्म का जीवन की ओर प्रवाह 'आस्रव' कहलाता है। कर्म का जीव (आत्मा) के साथ संयुक्त हो जाना 'बंधन' कहलाता है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीव में 'आत्मतत्त्व' एवं 'भौतिक तत्त्व' दोनों होते हैं। भौतिक तत्व (बाह्य तत्त्व) से आवृत आत्मा को जीव कहा गया है। आत्मा को इस भौतिक तत्त्व से मुक्त करना ही मोक्ष है। जैन धर्म के अनुसार त्रिरत्नों के अनुशीलन एवं निरन्तर अभ्यास से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

पंच महाव्रत

जैनधर्म में सम्यक आचरण हेतु साधुओं के लिए पंच महाव्रत- अहिंसा, सत्य बोलना, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह की व्यवस्था की गयी है। गृहस्थों के लिए पंच अणुव्रतों की बात की गयी है, जो हैं- अहिंसा अणुव्रत, सत्याणुव्रत, अस्तेय अणुव्रत, ब्रह्मचर्य अणुव्रत तथा अपरिग्रह अणुव्रत।

पंच महाव्रत में मांस, मदिरा और शहद पर प्रतिबंध लगाया गया है। जैन धर्म में शरीर को कष्ट और क्लेश देकर साधना करने की बात की गयी है। इसके अलावा मन और काया की अंत:शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है, लेकिन बाह्य शुद्धि के स्थान पर अंत:शुद्धि पर अधिक बल दिया गया है। कुल मिलाकर जैन धर्म का चरम लक्ष्य 'निर्वाण' है। यह सत्कर्म और सन्मार्ग से ही संभव है।

जैन संघ के सदस्य चार श्रेणियों में विभाजित थे- ( 1) भिक्षु (2 भिक्षणी (3) श्रावक और (4) श्रावकी। इनमें से प्रथम दो वर्ग तपस्वी लोगों के लिए थे तथा अन्तिम दो वर्ग गृहस्थों के लिए होते थे।

आचारांग सूत्र में भिक्षुओं के लिए कठोर नियमों का वर्णन है। दिगम्बर साधु को क्षुल्लक, ऐलक और निग्रंथ कहा जाता था तथा श्वेताम्बर साधु को यति, साधु और आचार्य
भगवान महावीर का प्रतीक चिन्ह 'सिंह' है।
भगवान महावीर ने अपने उपदेश प्राकृत भाषा में दिए जो उस समय जन सामान्य की भाषा थी।

जैन संघ: महावीर स्वामी ने जैन संघ की स्थापना की और इसको 11 भागों (गणों) में बाँट दिया। प्रत्येक गण एक अध्यक्ष के अधीन कार्य करता था, जिसे गणधर (गंधर्व) कहा जाता था महावीर स्वामी इस संब के सर्वोच्च धर्माध्यक्ष बने। उनकी मृत्यु के बाद एकमात्र जीवित गणधर 'सुधर्मण' संघ के अध्यक्ष बने

जैन सम्प्रदाय: महावीर स्वामी की मृत्यु के पश्चात् लगभग दो शताब्दियों तक जैन अनुयायी संगठित रहे किन्तु मौर्य काल में जैनधर्म निम्न दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया

दिगम्बर सम्प्रदाय 

इस सम्प्रदाय के साधुओं के लिए सम्पत्ति के पूर्ण बहिष्कार का प्रावधान है। इस सम्प्रदाय के साधु दिशाओं को ही वस्त्र शंकर नगे रहते हैं। भद्रबाहु ने इनका नेतृत्व किया |

श्वेताम्बर सम्प्रदाय 

इस सम्प्रदाय के साधु साध्वियाँ  सफेद  वस्त्र धारण करते हैं, जिन्हें ने अहिंसा एवं शान्ति का प्रतीक समझते हैं। स्थूलबाहू ने इनका नेतृत्व किया। 

श्वेताम्बर और दिगम्बर में अन्तरः


श्वेताम्बर वस्त्र धारण करने को मोक्ष प्राप्ति में बंधन नहीं मानते जबकि दिगम्बर ऐसा मानते हैं।
श्वेताम्बर  स्त्रियों को भी  निर्वाण को अधिकारिणी मानते थे मे लेकिन दिगम्बर नहीं।
श्वेताम्बर भोजन  को आवश्यक मानते थे लेकिन दिगम्बरों के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति के बाद भूख रहा जा सकता है।  श्वेताम्बर मानते हैं कि महावीर ने विवाह किया था लेकिन दिगम्बर कहते हैं कि उन्होंने विवाह नहीं किया था।        श्वेताम्बर 19वें तीर्थकर मल्लिनाथ को स्त्री मानते  हैं लेकिन दिगम्बर पुरुष।
श्वेताम्बर प्राचीन जैन साहित्य को मानते हैं लेकिन दिगम्बर नहीं मानते हैं।

जैन सभाएँ:


प्रथम जैन सभा 

यह सभा चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (322-298 ई. ३.) में पाटलीपुत्र में स्थूलभद्र (स्थूलबाहु) एवं सम्भूति विजय के निरीक्षण में हुई। इसमें जैन सिद्धान्तों का संकलन 12 अंगों में किया गया। इसी सभा में भद्रबाहु के अनुयायियों ने इन नियमों का बहिष्कार किया परिणामस्वरूप जैन संघ दो सम्प्रदायों-दिगम्बर व श्वेताम्बर में विभक्त हो गया

द्वितीय जैन सभा

यह सभा छठी शताब्दी (512 ई.) में देवधिेगणि की अध्यक्षता में गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर हुई। इसमें धर्म ग्रन्थों (12 अंगों, 44 आगमों एवं 12 उपांगों का) का अन्तिम रूप से संकलन किया गया और इन्हें लिपिबद्ध किया गया ।

• इन दोनों के अलावा एक जैन सभा चौथी शताब्दी में निम्न स्थानों पर हुई थी

1. मथुरा : अध्यक्ष - आर्य स्कन्दिल.
2. वल्लभी : अध्यक्ष - नागार्जुन सूरी।

महत्त्वपूर्ण तथ्य -

जैन धर्म में भौतिक तत्व को पुदगल कहा गया है। 
वर्धमान के तप का वर्णन ' आचरांग सूत्र' से ज्ञात होता है।'
नायाधम्मकहा सूत्र' में महावीर को शिक्षाओं का संग्रह है। 
जैन धार्मिक ग्रंथ 'आगम' कहलाते हैं।

मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य भद्रवाहु से दीक्षा ग्रहण की थी एवं वह जैन धर्म का अनुयायी होकर उनके साथ दक्षिण भारत में चला गया था वहीं संक्षेखना (संथारा) से उसका निधन हुआ।
बौद्ध साहित्य में महावीर को निगण्ठ- नाथपुत्त कहा गया है। 
जैन धर्मानुसार यह संसार 6 द्रव्यों जीव, पुद्गल (भौतिक तत्त्व ) धर्म, अधर्म, आकाश और काल से निर्मित है।
जैन धर्म में भिक्षुओं के लिए पंच महाव्रत तथा गृहस्थों के लिए पंच अणुव्रतों की व्यवस्था है।
जैन धर्म में अनेक प्रकार के ज्ञान को परिभाषित किया गया है 

(1) मति- इन्द्रिय-जनित ज्ञान।
(2) श्रुति- श्रवण ज्ञान
(3) अवधि- दिव्य ज्ञान
(4) मनः पर्याय- अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क का ज्ञान।
(5) कैवल्य पूर्ण ज्ञान (निर्रन्थ एवं जितेन्द्रियों को प्राप्त होने वाला ज्ञान)

जैन धर्मानुसार ज्ञान के तीन स्रोत है

(1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान तथा (3) तीर्थंकरों के वचन।

जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष के पश्चात् जीवन आवागमन के चक्र से छुटकारा पा जाता है तथा वह अनन्त ज्ञान, अनंत दर्शन, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख की प्राप्ति कर लेता है। इन्हें जैन शास्त्रों में 'अनन्त चतुष्टय' की संज्ञा प्रदान की गई है।
स्यादवाद (अनेकान्तवाद) अथवा सप्तभंगीनय को ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त कहा जाता है।
जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । किन्तु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है।          जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है पर सृष्टिकर्ता रूप में ईश्वर की सत्ता को नहीं स्वीकारता है।  जैन धर्म में संलेखना से तात्पर्य है 'उपवास द्वारा शरीर का त्याग

* ई पू. तीसरी सदी में  सम्राट  चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रवण बेलगोला (कर्नाटक) में संलेखना विधि द्वारा अपने शरीर का त्याग किया।
महावीर के दिये मौलिक सिद्धान्त चौदह प्राचीन ग्रन्थों में संकलित हैं। इन ग्रन्थों को पूर्व कहते हैं
गन्धर्व - महावीर के 11 प्रमुख शिष्यों को गन्धर्व कहा जाता है। गन्धर्व का शाब्दिक अर्थ है विद्यालयों के प्रधान।

जैन धर्म ग्रन्थ अर्द्धमागधी भाषा में लिखे गये हैं। कुछ ग्रन्थों की रचना अपभ्रंश में भी हुई है। उस समय बोलचाल की भाषा प्राकृत थी।
जैन धर्म के अनुसार कर्मफल ही जन्म तथा मृत्यु का कारण होता है।
जैन मठों (विहारों) को बसादी ( बसदिस) कहते थे।
जैन धर्म में व्रत, उपवास, तप एवं अहिंसा पर विशेष बल दिया गया हैं।
जैन धर्म का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कल्पसूत्र संस्कृत में लिखा गया है।
जैन दर्शन हिन्दू सांख्य दर्शन के काफी निकट है। • प्रारंभ में जैन धर्म में मूर्तिपूजा नहीं थी। परन्तु बाद में महावीर तथा उसके पहले के 23 तीर्थंकरों की पूजा आरम्भ हुई।
राजाओं में उदयन, बिम्बसार, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुस्सार और खारवेल, जैन धर्म के समर्थक माने जाते हैं।राष्ट्रकूटों गंग, कदम्ब एवं चालुक्य ने दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार एवं विस्तार में अमूल्य योगदान दिया था। राष्ट्रकुट नरेश अमोघवर्ष जैन संन्यासी बन गया था। उसने रत्नमालिका नामक ग्रन्थ की रचना की।          बुद्ध ने कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद का अधिकांश समय (लगभग 25 वर्ष) श्रावस्ती में बिताया|                        श्रावस्ती में गौतम बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक डाकू का हृदय परिवर्तन कर अपना शिष्य बनाया था।

कन्थिनः बौद्ध भिक्षुओं को वस्त्र प्रदान करने का समारोह।                                                         • पातिमोक्खः बौद्ध भिक्षुओं के लिए विधि-निषेधों का संग्रह।
परिवास: सदैव के लिए संघ से बहिष्कृत करना।

मानन्तः एक सीमित समय तक के लिए संघ से बहिष्कृत करना।
चन्नाः सिद्धार्थ गौतम बुद्ध) का सारथी।
कांथकः सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध) का घोड़ा।
आलारकलाम: गौतम बुद्ध के प्रथम गुरु ।
सुजाताः बुद्ध को गया में 6 वर्ष की तपस्या के बाद खीर का भोजन कराने सम्प्रदाय वाली कृषक कन्या।  सर्वास्तिवादीः स्थविरवादी बौद्ध सम्प्रदाय
जिसकी स्थापना राहुलभद्र ने की थी।

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