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Maurya Vansh in Hindi - मौर्य राजवंश

Maurya Vansh in Hindi - मौर्य राजवंश

Maurya Vansh in Hindi - मौर्य साम्राज्य से पूर्व भारत पर मगध साम्राज्य स्थापित था। इसका अंतिम शासक घनानन्द था। यह यूनानी शासक सिकन्दर महान का समकालीन था। सिकन्दर के जाने के पश्चात मगध साम्राज्य में अशान्ति व अव्यवस्था फैल गई थी। परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य (विष्णु गुप्त) की सहायता से नंदवंश के शासक घनानन्द को हराकर मगध सत्ता पर अधिकार कर लिया व मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य ने धीरे-धीरे चाणक्य की सहायता से संपूर्ण भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरोया। 

Maurya Vansh in Hindi - मौर्य राजवंश 

Maurya Vansh in Hindi
Maurya Vansh in Hindi


मौर्य साम्राज्य भारत का प्रथम व्यापक तथा भारतीय उपमहाद्वीप का विशालतम साम्राज्य था। मौर्य साम्राज्य हिन्दुकुश पर्वत से कावेरी नदी तक फैला था। इतना विस्तृत साम्राज्य अंग्रेजों द्वारा भी स्थापित नहीं किया गया। 

मौर्य साम्राज्य के विस्तार को जानने में हमें साहित्य, विदेशी विवरण तथा पुरातात्विक सामग्री इन तीनों से ही पर्याप्त मदद मिलती है। 

साहित्य

साहित्य में पुराण, विशाखदत्त का 'मुद्राराक्षस' और कौटिल्य (चाणक्य) का 'अर्थशास्त्र' प्रमुख हैं। इसके अलावा बौद्ध साहित्य- दीपवंश, महावंश, दिव्यावदान तथा जैन साहित्य- कल्पसूत्र, परिशिष्टपर्वन से भी मौर्य साम्राज्य के विस्तार पर प्रकाश पड़ता है। 

विदेशी विवरण

विदेशी विवरण के रूप में मेगस्थनीज ( इंडिका), नियार्कस, आनेसिक्रिटिश आदि यात्रियों के विवरण महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसके अलावा चंद्रगुप्त मौर्य के अभिलेख, अशोक के अभिलेख तथा रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से भी इस संबंध में पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मौर्यकाल के संबंध में साहित्य के प्रमुख स्रोत निम्न हैं

बौद्ध साहित्यः

  • जातक कथाएँ- इनसे समकालीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
  • दीर्घनिकाय से राजत्व के सिद्धान्त पर प्रकाश पड़ता है।
  • दीपवंश, महावंश- इन ग्रंथों से श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार एवं अशोक की भूमिका पर प्रकाश पड़ता है। दसवीं सदी में महावंश पर लिखी गई टीका 'वंशत्थपकासिनी' से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
  • दीपवंश में अशोक को 'उज्जैनीकरमोली' कहा गया है।
  • दिव्यावदान नामक ग्रंथ भी मौर्य काल की जानकारी का महत्त्वपूर्ण स्रोत है। यह ग्रंथ चीन तथा तिब्बत के बौद्ध विद्वानों द्वारा संकलित है। 
  • अशोकावदान, आर्यमंजूश्री मूलकल्प, मिलिन्दपन्हों, लामा तारानाथ द्वारा लिखित तिब्बत का इतिहास आदि सभी पुस्तक मौर्यकालीन जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं।        

जैन साहित्य

जैन ग्रंथों में भद्रबाहु  के कल्पसूत्र एवं हेमचंद्र के परिशिष्ट पर्व तथा जिनप्रभसूरि को विविध तीर्थकल्प से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता । है। जैन ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की घटनाएं वर्णित हैं तथा । पाटलिपुत्र का वर्णन है।
भद्रबाहुचरित, पुण्यास्त्रायक कथाकोष तथा राजावलिकथा से यह सूचना मिलती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य एक जैन था तथा उसने श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर अपने शरीर का त्याग किया था।

ब्राह्मण साहित्य

पुराण- पुराणों से मौर्य वंशावलियाँ स्पष्ट होती हैं।
मुदाराक्षस-विशाखदत कृत इस ग्रंथ से चाणक्य का नंद साम्राज्य के विरुद्ध षडयंत्र  का पता चलता है। ढुंढिराज ने इस ग्रंथ पर 9वीं शताब्दी में टीका लिखी है।
सोमदेव का कथासरित्सागर' तथा क्षेमेन्द्र कृत वृहदकथामंजरी से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।
तमिल साहित्य- मामूलनार तथा परनर की रचनाएँ

कौटिल्य का अर्थशास्त्रः

इस मौर्यकालीन पुस्तक के रचियता कौटिल्य थे जो चाणक्य या विष्णुगुप्त के नाम से भी जाने जाते हैं। अर्थशास्त्र में 15 अध्याय व 180 प्रकरण है। 
इसके प्रथम अध्याय में राजस्व संबंधी विषय, 
द्वितीय अध्याय में नागरिक प्रशासन, 
तृतीय व चतुर्थ अध्याय में दीवानी व फौजदारी कानून, 
पाँचवें अध्याय में सभासद वर्णन, 
छठे अध्याय में सप्तांग सिद्धान्त व अध्याय सात से पन्द्रह में राजा की विदेश नीति, युद्ध विजय व संधि का वर्णन किया गया है। इस प्रकार हम कह सकते है कि अर्थशास्त्र मुख्यतः शासन की व्यावहारिक समस्याओं से संबंधित अर्थात् राजनीति की पुस्तक है।
लौह विजय के सिद्धान्त का प्रतिपादन 'कौटिल्य' ने किया। 
अर्थशास्त्र की प्रथम हस्तलिपि आर्यशर्मा शास्त्री ने 1904 में खोज निकाली।

यह पुस्तक गद्य तथा पद्य दोनों शैली में लिखी है जिसे आमतौर पर महाभारत शैली कहा जाता है। इसकी भाषा संस्कृत है।

मेगस्थनीज व उसकी इंडिका

मेगस्थनीज यूनानी राजदूत था जिसे सेल्यूकस निकेटर ने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा था। मेगस्थनीज लगभग 304 ई.पू. से 299 ई.पू. तक पाटलिपुत्र में रहा था। मेगस्थनीज की इंडिका हमें मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। उसके अंश हमें यूनानी रोमन लेखकों जस्टिन, प्लूटार्क स्ट्रेबो, प्लिनी, एरियन की रचनाओं में मिलते है।

निर्गन्थों, जिसका संबंध जैन धर्म से है, को मेगस्थनीज 'नग्न साधु कहता है।                                                     

मौर्यकालीन शासक

मौर्यकाल में सर्वप्रथम सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की गई जिसे सम्राट अशोक ने "जीओ और जीने दो" के सिद्धान्त पर आगे बढ़ाया। 

चन्द्रगुप्त मौर्य (322-298 ई.पू.)


चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई. पू. में हुआ था।
यूनानी लेखों में मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के नाम के भिन्न भिन्न रूपान्तर मिलते हैं। स्ट्रैबो, एरिअन और जस्टिन इसे सैण्ड्रोकोट्स' के नाम से पुकारते है। एपिअन और प्लूटार्क इसे 'ऐण्ड्रोकोट्स' के नाम से पुकारते हैं। फिलार्कस के लिए यह 'सैण्ड़ोकोप्ट्स' है। सर्वप्रथम  सर विलियम जोंस ने इन यूनानी नामों का तादाम्य चन्द्रगुप्त मौर्य से स्थापित किया।

महावंश और दीपवंश जैसे बौद्ध ग्रंथों में चन्द्रगुप्त मौर्य को शाक्यों की  मोरिय शाखा का शत्रु बताया गया है। मुद्राराक्षस चन्द्रगुप्त लिए "वृषल' शब्द का प्रयोग मिलता है।

चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति के प्रश्न पर निम्न विचारधाराएँ हैं ।


प्रायः सम्पूर्ण ब्राह्मण साहित्य व मुद्राराक्षस उसे शूद्र समझते है।
बौद्ध व जैन साहित्य उसे क्षत्रिय व अभिजात वर्ग का मानता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र उसे कुलीन व उच्चकोटि का बताता है।
स्पूनर ने इन्हें पारसीक माना है।
रोमिला थापर ने इसे वैश्य जाति में उत्पन्न माना है। 
चन्द्रगुप्त भारतीय इतिहास का प्रथम महान् सम्राट था। उसने अपने गुरू एवं मन्त्री विष्णुगुप्त, जिसे इतिहास में 'चाणक्य' के नाम से जाना जाता है, की सहायता से मगध के नन्दवंशीय राजा घननन्द को सिंहासन से पद्च्युत कर मगध राज्य पर अपना अधिकार स्थापित किया। उसने भारत को यूनानी शक्तियों से मुक्त कराया। इस घटना की पुष्टि मुद्राराक्षस से होती है। चाणक्य ने 322 ई. पू. में चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक किया। चन्द्रगुप्त ने 'राजकीलम' खेल के माध्यम से तक्षशिला के आचार्य चाणक्य को अपने राजनीतिक चातुर्य एवं युद्धिमता से प्रभावित किया था।

यूनानी शासक सेल्युकस ने 305 ई. पू. में भारत पर आक्रमण किया - था। इस आक्रमण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को पराजित किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस निकेटर की पुत्री हेलना से विवाह किया। यह विवाह भारतीय इतिहास का 'प्रथम अन्तरराष्ट्रीय विवाह' माना जाता है।

सेल्युकस ने मेगस्थनीज नामक अपना एक राजदूत चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा। मेगस्थनीज ने भारत की तत्कालीन परिस्थिति पर 'इंडिका' नामक एक पुस्तक की रचना की थी।

चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत में एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त ने सिकन्दर की असामयिक मृत्यु से उत्पन्न अव्यवस्था से लाभ उठाया और सिन्धु नदी व व्यास नदी के बीच के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। 

इस प्रकार मौर्यों का नियंत्रण सर्वप्रथम उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र पर हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य ने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर, पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर -पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत तथा पश्चिम में अरब सागर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। अफ़गानिस्तान, बलूचिस्तान, पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, बंगाल, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिण में मैसूर का विशाल भू-भाग इसके साम्राज्य के अन्तर्गत आता था। 

चन्द्रगुप्त मौर्य प्रथम शासक था जिसने नर्मदा नदी के दक्षिण में भी अपना विजय अभियान चलाया। चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य में हिन्दुकुश, एरियाना (हेरात) आरकोसिया (कन्धार) तथा जेड्रोसिया सम्मिलित थे। इन प्रदेशों को सेल्युकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य - को दिया था। 

Note - पाटलिपुत्र चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य की राजधानी थी।

जैन परम्पराओं के अनुसार अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वह जैन हो गया तथा भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण कर ली।

चन्द्रगुप्त के शासनकाल के अन्त में मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा। उसके पश्चात् वे राजपाट अपने पुत्र को सौंपकर भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर ) में तपस्या करने चल गए। यहाँ चंदगिरि पर्वत पर स्थित '  चंद्रगुप्तवस्ति ' नामक मंदिर में उन्होंने 298 ई.पू.के लगभग सल्लेखना पद्धति द्वारा प्राण त्याग दिए। 

'चंद्रगिरि पर्वत' पर एक गुफा है जो भद्रबाहुस्वामी की गुफा के नाम से प्रख्यात है। यह जैन आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण आगमन का स्मरण दिलाती है।

शक क्षत्रप रूद्रदामन के जूनागढ़ लेख में यह उल्लेख मिलता है कि सौराष्ट्र क्षेत्र में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पुष्यगुप्त वैश्य को राज्यपाल नियुक्त किया जिसने इस क्षेत्र के कृषकों को सिंचाई सुविधा देने के लिए सुदर्शन झील का निर्माण कराया। 

बिन्दुसार (298-273 ई.पू.)

  • 298 ई.पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र विन्दुसार उसका उत्तराधिकारी बना ।यह आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था।
  • यूनानी लेखकों ने उसे 'अमित्रोकेडीज' कहा है जिसका संस्कृत रूपान्तरण   अमित्रघात' (शत्रुओं को नष्ट करने वाला) होता है। यह उसकी उपाधि
  • थी  
  • वायुपुराण में बिन्दुसार को 'भद्रसार' तथा जैन ग्रन्थों में 'सिंहसेन' कहा गया है।
  • उसके शासनकाल के प्रारंभ में कौटिल्य और बाद में 'खल्लटक' प्रधानमंत्री रहा।

सीरिया के सम्राट एण्टियोकस प्रथम ने डायमेकस तथा मिस्र के शासक टॉलमी फिलाडेल्फस ने डायोनियस को राजदूत के रूप में बिन्दुसार के राजदरबार में नियुक्त किया।
बिन्दुसार की सभा 500 सदस्यों वाली एक मंत्रिपरिपद् भी थी जिसका प्रधान 'खल्लटक' था।

अशोक महान (273-232 ई.पू.)

  • बिन्दुसार का पुत्र अशोक विश्व के महानतम सम्राटों में से एक था। 
  • राज्यारोहण से चार वर्ष के सत्ता संघर्ष के पश्चात् 269 ई.पू. में अशोक का औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। अशोक ने 37 वर्ष तक शासन किया व उसकी मृत्यु 232 ई. पूर्व में हुई।
  • उसे अभिलेखों में देवानामप्रिय, देवनांप्रियदसि की उपाधियों से संबोधित किया गया है। मास्की, गुर्जरा, नेत्तुर तथा उद्यगोलम शिलालेखों में उसका नाम अशोक मिलता है।
  • पुराणों में अशोक को अशोक वर्धन कहा गया है।
  • दिव्यावदान के अनुसार बिंदुसार ने मरते समय अपने पुत्र सुसीम को राजा बनाना चाहा था किन्तु मंत्री राधागुप्त की सहायता से अशोक को शासक बनाया गया। 
  • राजा बनने से पूर्व अशोक उज्जयिनी का शासक था। 
  • सिंहली अनुश्रुति दीपवंश तथा महावंश से ज्ञात होता है कि अशोक अपने 99 भाइयों की हत्या कर शासक बना जवकि तारानाथ छ: भाइयों की हत्या का जिक्र करता है।
  •  बौद्ध ग्रंथों में अशोक के भाइयों के रूप में तिस्स, सुसीम तथा विगताशोक का जिक्र किया गया है। उसी प्रकार अशोक की पत्नी के रूप में महादेवी, करूवाकी, असंधिमित्रा, पद्मावती तथा तिस्स रक्षा का नाम मिलता है। पुत्री में संघमित्रा के अलावा चारूमति का नाम मिलता है ।

चारुमती : अशोक की पुत्री जिसका विवाह नेपाल के शासक देवपाल से हुआ। देवपाल ने देवपाटन (नेपाल) नगर की स्थापना की।
 दिव्यावदान में अशोक की माता का नाम सुभदांग्री मिलता है जो चम्पा के एक ब्राह्मण की कन्या थी। दक्षिण परंपरा में उसे 'धर्मा'कहा गया है। 

कलिंग का युद्ध : 

पूर्वी समुद्री तट पर बंगाल की खाड़ी के किनारे महानदी और गोदावरी नदियों के बीच के प्रदेश (उड़ीसा) को प्राचीन काल में कलिंग कहा गया है। 
अशोक ने अपने राज्यारोहण के 8वें वर्ष में (राज्याभिषके के नवें वर्ष 261 ई.पू. में, स्त्रोत-हिन्दी माध्यम कार्यान्वयक निदेशालय की झा व श्रीमाली पुस्तक ) कलिंग का युद्ध किया था। 
कलिंग पर विजय के पश्चात् तोसली को इसकी राजधानी बनाया गया।
कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के विषय में अशोक के 13वें अभिलेख से विस्तृत सूचना मिलती है।
प्लिनी के अनुसार अशोक ने व्यापारिक कारणों से कलिंग पर आक्रमण किया था। कलिंग उस समय हाथियों के लिए प्रसिद्ध था। हाथीगुम्फा अभिलेख के अनुसार कलिंग युद्ध के समय कलिंग का शासक नंद राज था।
कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक ने युद्ध नीति को सदैव के लिए त्याग दिया तथा दिग्विजय ( भेरी-घोष) के स्थान पर धम्म घोष ( धम्म विजय ) को अपनाया था।
अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में अशोक ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। वह शिव का उपासक था। कलिंग युद्ध के बाद वह बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। दिव्यावदान के अनुसार बौद्ध भिक्षु उपगुप्त ने अशोक को बौद्धधर्म में दीक्षित किया।

अशोक का साम्राज्य विस्तार

  1. उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश
  2. दक्षिण में मैसूर
  3. उत्तर में हिमालय की तराई
  4. पूर्व में बंगाल
  5. पश्चिम में सौराष्ट्र और सोपारा
अपने राज्याभिषेक के 10वें वर्ष में सम्राट अशोक ने बोध गया की यात्रा की।
अशोक ने अपने अभिषेक के 20वें वर्ष में लुम्बिनी की यात्रा की व लुम्बिनी ग्राम को कर मुक्त घोषित किया तथा कर उपज का 1/8 भाग लेने की घोषणा की गई।
अशोक के बुद्ध, धम्म व संघ का अभिवादन भाव से प्राप्त लघु शिलालेख में होता है। इस अभिलेख में अशोक ने 'त्रिरत्न' में आस्था प्रकट की है। 

अशोक का धम्म

अशोक का धम्म-  अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जिन आचारों की संहिता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखों में 'धम्म' कहा गया है।
अशोक ने धम्म विजय की चर्चा अपने 13वें शिलालेख में की है। वस्तुतः अशोक भारतीय इतिहास में प्रथम शासक था, जिसने राजनीतिक जीवन में हिंसा के त्याग का सिद्धान्त सामने रखा।
अशोक की धम्म नीति में विभिन्न पंथों से लिए गए तत्व शामिल हैं। धम्म नीति के रूप में उसने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के कुछ मूलभूत आदर्शों को व्यक्त किया है जैसे बड़ों के प्रति आदर, दासों एवं नौकरों के प्रति करुणा का भाव, सहिष्णुता आदि। इसी प्रकार ब्रह्मगिरि अभिलेख में उसने गुरु के प्रति भी श्रद्धा व्यक्त करने की बात की है। उसने अल्पव्यय और अल्प संग्रह को भी धम्म के अन्तर्गत शामिल किया है। अपनी धप्प नीति के तहत अशोक ने कुछ दुर्गुणों जैसे- चंडुता, निष्ठुरता, क्रूरता आदि से मुक्त रहने की भी बाकी है। इस आधार पर अशोक की धम्म नीति को जीओ और जीने दो के आदर्श से प्रेरित माना जाता है। 
पड़ौसी क्षेत्रों की यात्रा व वहाँ शिष्टमंडलों को भेजना उसकी धम्म नीति का आवश्यक हिस्सा थी।

अशोक द्वारा धम्म प्रचार हेतु निम्न कार्य करवाये गये। 
धम्म यात्राओं का प्रारम्भ।
अपने राजकीय अधिकारियों राजुक, प्रादेशिक गुप्त को जनता बीच जाकर धर्म के प्रचार व उपदेश करने का आदेश दिया।
अशोक ने धार्मिक सम्प्रदायों के बीच प्रभाव को समाप्त कर धर्म की एकता स्थापित करने के लिए धर्म महामात्रों की नियुक्ति की।

13वें शिलालेख में उल्लेख है कि अशोक ने अपने धम्म के प्रचार के लिए (1) सीरियाई नरेश अन्तियोक ( एण्टीयोकस द्वितीय) (2) मिस्र नरेश तुरमय (टॉलेमी), (3) मेसिडोनिया के राजा अन्तिकिन (एण्टिगोनस) (4) सिरीन के शासक मगस तथा (5) एपिरस के शासक अलिकसुन्दर (एलेक्जेण्डर) आदि के दरबार में अपने धर्म प्रचारक भेजे।

इसके अलावा अशोक ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में धर्म प्रचारक भेजे-

  1. महारक्षित - यवन देश
  2. धर्मरक्षित  - अपरान्तक
  3. महाधर्मरक्षित - महाराष्ट्र
  4. महादेव - महिषमण्डल
  5. रक्षित - बनवासी
  6. सोन तथा उत्तरा - सुवर्णभूमि
  7. मज्झिन्तिक - कश्मीर तथा गन्धार
  8. मज्झिम - हिमालय देश

अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को धर्म प्रचार हेतु श्रीलंका भेजा। इसके पश्चात् यहाँ के राजा तिष्य ने भी देवानामप्रिय की उपाधि धारण की। 
अशोक ने पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन 251 ई.पू. में (स्त्रोत-माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान की कक्षा 11वीं की पुस्तक भारत का इतिहास व संस्कृति) किया जिसके अध्यक्ष मोगलुिपत्ततिस्स थे।(कुछ पुस्तकों में इस बौद्ध संगीति का आयोजन अशोक के राज्याभिषेक के 17वें वर्ष में होना बताया गया है।) इस संगीति में बौद्ध ग्रंथों का अंतिम रूप से सम्पादन किया गया व तीसरा पिटक अभिधम्म पिटक जोड़ा गया। तीनों पिटकों को 'त्रिपिटक' के नाम से संबोधित किया गया। इस संगीति के बाद बौद्ध धर्म के भारत से बाहर प्रचार-प्रसार की प्रक्रिया आरम्भ हुई। 

'राजतरंगिणी' के अनुसार अशोक ने श्रीनगर व देवपाटन नगरों की स्थापना करवाई।

अशोक की मृत्यु 232 ई. पू. में हुई। 232 ई. पू. में अशोक की मृत्यु के बाद से ही मौर्य साम्राज्य के पतन की क्रिया आरम्भ हो गई। 

प्रशासन में अशोक द्वारा सुधार:

अशोक ने प्रशासन को 'पितृ सिद्धान्त' से जोड़ दिया तथा अपने धौली अभिलेख में घोषित किया कि सारी प्रजा मेरी संतान ' हे तथा उसके मुख दुख की चिंता तथा निवारण सरकार का दायित्व है इसके लिये अनेक नये अधिकारियों की नियुक्ति की गई। जैसे-

धम्म महामात्र- जो धार्मिक एवं नैतिक नियमों का प्रचारक होता था तथा गरीब तथा बन्दी परिवारों को आर्थिक सहायता प्रदान करने की सिफारिश करता था।

'रज्जुक'- अशोक ने अपने शासन के 27वें वर्ष में रज्जुकव नामक अधिकारी की नियुक्ति की। यह एक स्वतंत्र न्यायिक अधिकारी होता था जो दण्ड समता तथा न्याय समता पर बल देता था।

अशोक न्यायिक प्रणाली में भी लचीलापन लाया। उसने मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति को तीन दिन की अतिरिक्त मुहलत प्रदान की। स्वयं उसने धर्म महायात्रा प्रारम्भ की जिसका उद्देश्य था जनता से प्रत्यक्ष संपर्क करना तथा उसकी समस्या का समाधान निचले स्तर से करना। 
इससे स्थानीय प्रशासन भी ज्यादा कारगर हुआ। उसने आखेट पर प्रतिबंध लगाया, धार्मिक दान में धन, क्षेत्र तथा गुफादान करके विभिन्न धार्मिक समूह को संतुष्ट करने का प्रयास किया। सड़क के किनारे जगह-जगह पर अथवा अन्य स्थानों पर नागरिक सुविधाएँ जैसे- कुआँ, सराय, छायादार वृक्ष तथा बगीचे लगाकर यात्रा को सुखद बनाने का प्रयास किया और यात्रा की सुविधा के लिए विभिन्न सड़कों का निर्माण करवाया तथा उसकी सुरक्षा के लिए स्थानीय उत्तरदायित्व को निर्धारित किया।

अशोक के अभिलेख व शिलालेखः

मौर्यकाल के अध्ययन के स्रोत के रूप में अशोक के अभिलेखों का अत्यधिक महत्व रहा है। अशोक के काल का इतिहास हमें मुख्यत: उसके अभिलेखों से ही प्राप्त होता है। अभी तक अशोक के 47 से अधिक स्थलों पर अभिलेख प्राप्त हुए जिनकी संख्या 150 से ज्यादा है। 
ये अभिलेख राजकीय आदेश के रूप में जारी किए गए थे जो देश के एक कोने से दूसरे कोने तक बिखरे पड़े है। इन अभिलेखों से एक ओर जहाँ साम्राज्य की सीमा के निर्धारण में मदद मिलती है वहीं इनसे अशोक के प्रशासन एवं उसके धार्मिक विश्वास तथा उसके व्यक्तिगत जीवन, उसकी आंतरिक व विदेश नीति जैसी अनेक महत्वपूर्ण बातों की सूचना मिल जाती है।
अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि एवं प्राकृत भाषा में प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अशोक के अभिलेखों में तीन लिपियों का प्रयोग किया गया है। ये लिपियाँ हैं

  1. ब्राह्यी लिपि- अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं।
  2. खरोष्ठी लिपि- मनसेरा (हजारा-पाकिस्तान) और शाहबाज़गढ़ी (पेशावर-पाकिस्तान) अभिलेखों को खरोष्टी लिपि में लिखा गया है। यह लिपि सैंधव लिपि की तरह दाई से बाईं ओर लिखी जाती है।
  3. ग्रीक (यूनानी) एवं अरामाइक लिपि- 'शार-ए कुजा' अभिलेख द्विभाषीय अभिलेख है। यह अरामाइक लिपि में है। इसके अलावा काबुल नदी के किनारे जलालाबाद के पास से प्राप्त लमघान शिलालेख भी अरामाइक लिपि का महत्वपूर्ण शिलालेख है।

अशोक के अभिलेखों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है

(1) शिलालेख
(2) स्तम्भ लेख
(3) गुहालेख।
(4) लघु शिलालेख
(5) लघु स्तम्भ लेख

शिलालेख:

ये पहाड़ों की शिलाओं पर लिखित अभिलेख है। ये निम्न हैं
वृहद शिलालेख: ये 14 विभिन्न लेखों के समूह हैं जो 8 स्थानों पर प्राप्त हुये हैं। ये स्थान हैं- शाहबाजगढ़ी य मनसेरा (पाकिस्तान) कालसी (उत्तराखण्ड), गिरनार (गुजरात) धौली व जोगढ़ (उड़ीसा), और  एर्रागुडी़ (आन्ध्रप्रदेश) एवं सोपारा (महाराष्ट्र)। ये शिलालेख निम्न हैं-
  1. प्रथम वृहद शिलालेख इसमें पशुहत्या पर प्रतिबंध की बात की गई है।
  2. दूसरा वृहद शिलालेख- इसमें समाज कल्याण से संबंधित कार्य बताए गए हैं तथा इसे धर्म में शामिल किया गया है। इसमें चिकित्सा सुविधा, मार्ग निर्माण, कुआँ खोदना एवं वृक्षारोपण का उल्लेख मिलता है।
  3. तीसरा वृहद शिलालेख- इसमें वर्णित है कि लोगों में धर्म की शिक्षा देने के लिये युक्त, रज्जुक और प्रादेशिक जैसे अधिकारी पाँच वर्षों में दौरा करते थे।
  4. चौथा अभिलेख- इसमें धम्म नीति से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये गए हैं। इसमें भी ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति आदर दिखाया गया है। 
  5. पाँचवाँ अभिलेख- इस अभिलेख में अशोक के राज्यारोहण के 13वें वर्ष के बाद धम्म महामात्र की नियुक्ति का उल्लेख है।
  6. छठा शिलालेख- में धम्म महामात्र के लिये आदेश जारी किया गया है कि वह राजा के पास किसी भी समय सूचना प्रेषित कर सकता है।
  7. सातवाँ शिलालेख- इसमें धम्म का स्पष्ट स्वरूप बताते हुए सभी सम्प्रदायों के लिये सहिष्णुता की बात की गई है।
  8. आठवाँ शिलालेख- इस अभिलेख में सम्राट अशोक द्वारा आखेटन का त्याग तथा उसके स्थान पर धम्म यात्रा करने की सूचना दी गई है।
  9. नवम् शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक खर्चीले समारोह जैसे- जन्म, विवाह आदि के अवसर पर आयोजित समारोह की निंदा करता है तथा उन समारोहों पर रोक लगाने की बात करता है।
  10. दशम शिलालेख- इस अभिलेख में ख्याति, गौरव की निंदा की गई है। - ग्यारहवाँ शिलालेख- इसमें धम्म नीति की व्याख्या की गई है।
  11. बारहवाँ शिलालेख-इस शिलालेख में विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य सहिष्णुता पर बल दिया गया है तथा सर्वधर्म समभाव की अवधारणा का उल्लेख किया गया है।
  12. तेरहवाँ अभिलेख-यह सबसे महत्वपूर्ण अभिलेख है। इस अभिलेख में कलिंग विजय, उसके हृदय परिवर्तन तथा उसके द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने की सूचना मिलती है। इसमें युद्ध विजय के बदले धम्म विजय पर बल दिया गया है। इस अभिलेख से ही अशोक की विदेश नीति पर प्रकाश पड़ता है। यहाँ कहा गया है कि देवानाम्ण्पिय ने अपने समस्त सीमावर्ती राज्यों पर विजय पाई जो लगभग 600 योजन तक का क्षेत्र है।
  13. इसमें उसके पाँच पड़ोसियों सीरिया का शासक एटिंयोकस द्वितीय, मिस्र के शासक टॉलेमी, मकदूनिया के एन्टिगोनस, सीरीन के मगस तथा एपिरस के एलेक्जैण्डर तथा दक्षिण में चोल, पाण्ड्य तथा श्रीलंका का वर्णन है।
  14. चौदहवां शिलालेख- यह अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण है। इसमें उपरोक्त सभी अभिलेखों में लेखक द्वारा की गई गलतियों का उल्लेख किया गया है।

कलिंग शिलालेख

दो पृथक कलिंग प्रज्ञापन (Two Separate Kalinga Edicts)- उड़ीसा के धौली व जौगढ़ स्थानों पर ये प्रज्ञापन मिले हैं। इनमें अन्य बातों के अलावा कलिंग राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति के विषय में बताया गया है। वह कलिंग के नगर व्यावहारिकों (न्याय अधिकारी) को न्याय के मामले में उदार व निष्पक्ष होने का आदेश देता है। इसमें अशोक यह घोषित करता है कि सारी प्रजा मेरी संतान है'।

लघु शिलालेख-  

अशोक के लघु शिलालेख विभिन्न क्षेत्रों जैसे रूपनाथ, सासाराम, दिल्ली, गुर्जरा, भाब्रू (बैराठ), मास्की, ब्रह्मगिरी, सिद्धपुर, जटिंग रामेश्वर, एरंगुड़ी, गोविमठ, पालकी गुण्डु, राजुल मंडगिरि तथा उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर में स्थित अहरौरा से प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा मध्यप्रदेश के सारो-मारो तथा पनगुड़िया एवं नेत्तुर (नेट्र) तथा कर्नाटक के उदयगोलम तथा सन्नाती से भी लघु शिलालेखों की प्राप्ति हुई है। मास्की, गुर्जरा, उदयगोलम तथा नेट्टर से प्राप्त शिलालेखों में अशोक को उसके व्यक्तिगत नाम से पुकारा गया है। मास्की शिलालेख में उसका नाम 'अशोक देवानामप्रिय' मिलता है। मास्की शिलालेख रायचूर ( कर्नाटक) में स्थित है।

स्तम्भ लेख

इन लेखों की संख्या 7 है जो छ: विभिन्न स्थानों पर मिले हैं। दिल्ली-टोपरा, दिल्ली-मेरठ, लौरिया अरेराज, लौरिया नंदनगढ़, रामपुरवा व प्रयोग (इलाहाबाद)। प्रयाग का शिलालेख पहले कौशाम्बी में स्थापित किया था जिसे बाद में प्रयाग में स्थापित किया गया।

लघु स्तंभलेख- 

अशोक के लघु स्तम्भ लेख निम्नांकित स्थानों पर स्थापित है-

साँची, सारनाथ, कौशाम्बी, निगाली सागर (निग्लीवा, नेपाल), रुम्मिनदेई (नेपाल)। इन स्तम्भों पर राजकीय घोषणाएँ खुदी हुई है। कौशाम्बी के लघु स्तम्भ लेख में अशोक अपने महामात्रों को आदेश देता है कि वह संघ भेद को रोके। इसी स्तंभ लेख में अशोक की रानी 'करूवाकी' (तीवर की माँ) द्वारा दान दिए जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख को रानी का अभिलेख भी कहा जाता है। रूम्मिनदेई अभिलेख से अशोक के काल के करारोपण पर प्रकाश पड़ता है। 'रुम्मिनदेई स्तम्भ लेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ने बुद्ध के जीवन से संबंधित पवित्र स्थानों की यात्रा की थी। रुम्मिनदेई स्तम्भ लेख अशोक के राजकाल के20वें वर्ष का है।

महत्वपूर्ण तथ्यः

मौर्य शासकों का राजत्व अशोक के धौली अभिलेख में अभिव्यक्त हुआ है। इसमें अशोक यह घोषित करता है कि 'सारी प्रजा मेरी संतान है।' इस प्रकार इसमें लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का पता चलता है।
अशोक के दूसरे और 11वें शिलालेख में धम्म नीति की व्याख्या की गई है।
उसके तीसरे, पाँचवें और छठे शिलालेख से उसकी प्रशासनिक नीति पर प्रकाश पड़ता है। • दिल्ली-टोपरा स्तंभ लेख में आजीवक का जिक्र है तथा उसे जैनों से पहले स्थान दिया गया है।
अशोक के स्तंभ लेखों में दिल्ली-टोपरा का स्तंभ लेख एकमात्र ऐसा अभिलेख है जिस पर अशोक के सात आदेश खुदे हैं जबकि वाकी स्तंभ लेखों पर अशोक के केवल छ: आदेश मिलते हैं।
जे.एच. हेरिंगटन ने 1786 में बाराबार तथा नागार्जुनी पर्वतीय गुफा के शिलालेखों की खोज की। • जेम्स टॉड ने 1822 में गिरनार शिलालेख की खोज की।
कार्लाइल ने 1872 में रामपुरवा स्तंभ लेख तथा बैराठ के लघु शिलालेख का पता लगाया।
फीहरर ने 1895 में निगाली सागर स्तंभ लेख की खोज की तथा 1896 में रुम्मिनदेई स्तंभ लेख की खोज की। • ओरटैल ने 1905 में सारनाथ स्तंभ लेख की खोज की।
कुछ अभिलेख अपने मूल स्थान से हटाकर अन्य स्थानों पर ले जाए गए हैं। उदाहरण के लिये फिरोजशाह तुगलक के समय मेरठ तथा टोपरा के स्तंभ अभिलेख दिल्ली ले जाये गए। टोपरा का अभिलेख पहले उत्तरप्रदेश के सहारनपुर (खिज्राबाद) जिल में टोपरा नामक स्थान पर गड़ा हुआ था। उसी तरह इलाहाबाद का स्तंभ शिलालेख पहले कौशांबी में था। • बैराठ अभिलेख को अध्ययन के लिए कनिंघम महोदय द्वारा कलकत्ता संग्रहालय लाया गया था।
अशोक के बैराठ व भाव अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि राजस्थान पर मौर्यों का नियंत्रण रहा था। मध्य भारत का क्षेत्र भी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। भाब्रू शिलालेख ऐसा एकमात्र शिलालेख है जिसमें अशोक ने 7 बौद्ध पुस्तकों के नाम बताए हैं।
भड़ौच मौर्यों के अधीन एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था।
गंगा-यमुना के ऊपरी दोआब और मध्य दोआब के क्षेत्र मौर्यों के केन्द्रीय क्षेत्र रहे थे। अशोक के स्तम्भ अभिलेख इन्हीं क्षेत्रों से मिले हैं।
सर्वप्रथम 'जीओ और जीने दो' का पाठ अशोक ने पढ़ाया था। • सर्वप्रथम ग्रेनवेडेल महोदय ने बताया कि 'मयूर' मौर्यों का राजवंशीय चिह्न (Dynastic Emblem) था। • मौर्यकाल में तक्षशिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था।

पाटलीपुत्र गंगा व सोन नदी के संगम पर स्थित था। पाटलीपुत्र का लैटिन नाम 'पालिब्रोथा' था।

परवर्ती मौर्य सम्राट ( 236-184 ई. पू.)

 विभिन्न साहित्यिक स्रोत अशोक के पश्चात् 9 या 10 राजाओं का उल्लेख करते हैं जिसमें कुणाल, दशरथ, सम्प्रति व बृहद्रथ प्रमुख है।
बृहदथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था जिसकी हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में सेना का निरीक्षण करते समय कर दी थी एवं शुंगवंश के शासन की स्थापना की थी।                                                    

मौर्य प्रशासन

चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में भारत ने सर्वप्रथम राजनीतिक केन्द्रीकरण के दर्शन किये गए तथा चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया। यह नौकरशाही पर आधारित प्रशासन था। मौर्य साम्राज्य में प्राचीन भारत में सर्वाधिक विशाल नौकरशाही थी।

केन्द्रीय शासन

मौर्य साम्राज्य एक केन्द्रीकृत प्रशासन था जिसकी पहुँच नागरिक जीवन के सभी क्षेत्रों में थी तथा इसकी चिंता बाजार-व्यवस्था के नियंत्रण से लेकर नागरिक जीवन में नैतिक मूल्यों की सुरक्षा तक थी। मौर्य आ साम्राज्य की राजतंत्रात्मक शासन पद्धति में राजा केन्द्रीय शासन का प्रमुख था। राजशक्ति 'निरकुंश पितृसत्तावाद' पर आधारित थी। 
प्रशासनिक विभाग- मौर्य प्रशासन में उच्च अधिकारियों को 'तीर्थ' कहा जाता था। इनकी संख्या 18-थी। इन्हें महामात्य की संज्ञा भी दी गयी है।

18 तीर्थ (महामात्य)

  1. प्रधान महामात्य व पुरोहित- प्रधानमंत्री
  2. समाहर्ता - राजस्व विभाग का प्रधान           
  3. सन्निधाता - राजकीय कोषाध्यक्ष
  4. सेनापति - युद्ध विभाग का मंत्री
  5. युवराज -  राजा का उत्तराधिकारी
  6. प्रदेष्टा - फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश
  7. व्यावहारिक - नगर का प्रमुख न्यायाधीश
  8. सेनानायक - सेना का संचालक
  9. मंत्रिपरिपदाध्यक्ष - परिषद का अध्यक्ष
  10. दण्डपाल - पुलिस अधिकारी
  11. अन्तपाल - सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक
  12. दुर्गपाल - देश के भीतरी भागों के दुर्गों का रक्षक
  13. आन्तर्वशिक - अन्त:पुर का प्रधान
  14. आरविक - वन-विभाग का प्रधान।
  15. पौर अथवा नागरिक - नगर का प्रमुख अधिकारी/कोतवाल
  16. कार्मान्तिक - उद्योगों एवं कारखानों का अध्यक्ष
  17. दौवारिक - राजमहलों की देखरेख करने वाला प्रधान
  18. प्रशास्ता - अक्षपटल का प्रमुख जो राज्य के समस्त विवरण सुरक्षित रखता था।
उपर्युक्त अधिकारियों के अतिरिक्त कुछ अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें अध्यक्ष कहा जाता था।

प्रांतीय प्रशासन- 

प्रशासन के सुचारू रूप से संचालन हेतु मौर्य साम्राज्य 5 प्रांतों में विभाजित था।

प्रांत - राजधानी
उत्तरापथ - तक्षशिला
अवन्तिराष्ट्र - उज्जैयनी
दक्षिणापथ - स्वर्णगिरी
कलिंग - तोसलि
मध्यदेश (प्राच्य/प्राशी ) - पाटलिपुत्र

प्रांतपति कुमार अथवा आर्यपुत्र कहे जाते थे। उनके कार्यों में सहायता एवं मंत्रणा के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी परन्तु इस मंत्रिपरिषद को अनेक विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त थी। 
प्रत्येक प्रांत 'जनपदों में विभक्त था। 800 ग्रामों का एक जनपद होता था। 400 ग्रामों की इकाई को स्थानीय, 200 ग्रामों की इकाई को खार्वटीक  100 ग्रामों की इकाई को संग्रहण कहा जाता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।

ग्राम-प्रशासन- 

ग्राम का अध्यक्ष 'ग्रामणी' होता था। ग्रामसभा के कार्यालय का कार्य 'गोप' नामक कर्मचारी किया करते थे। 'गोप' नामक अधिकारी जनगणना के कार्यों से भी सम्बद्ध था।

नगर-प्रशासन- 

मौर्य साम्राज्य में नगर प्रशासन का प्रधान 'नगरक' नामक अधिकारी होता था। 'नगरक' की सहायता एवं मंत्रणा के लिए समाहर्ता व प्रादेशिक नामक अधिकारी भी होता था। मेगस्थनीज की इंडिका में विस्तार से पाटलीपुत्र के नगर-प्रशासन की चर्चा की गई है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र में 6 प्रशासनिक समितियों का वर्णन किया है। ये समितियाँ नगर प्रशासक के अधीन कार्य करती थी। प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे कुल मिलाकर तीस सदस्य नगर का प्रशासन देखते थे।

नगर-समितियाँ

  • शिल्पकला समिति
  • वैदेशिक समिति
  • जनसंख्या समिति
  • उद्योग समिति
  • व्यापार वाणिज्य समिति
  • कर समिति

न्याय व्यवस्था

मौर्य काल में सबसे छोटा न्यायालय 'ग्राम सभा थी। इसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख और जनपदीय न्यायालय होते थे। राजा स्वयं न्याय की सर्वोच्च संस्था था। मौर्यकाल में दो प्रकार के न्यायालय होते थे।

धर्मस्थीय- 

ये दीवानी न्यायालय थे, जो लोगों के पारस्परिक मामले सुनते थे। उदाहरण के लिए चोरी डाके, मार- पीट इत्यादि के मामले। इस न्यायालय का प्रमुख न्यायाधीश 'व्यावहारिक' होता था।

कंटकशोधन-

ये फौजदारी न्यायालय थे। ये राज्य एवं व्यक्ति के मध्य विवादित मामलों में न्याय करते थे। इनका प्रमुख न्यायाधीश 'प्रदेष्टा होता था।

मौर्यकालीन दंड व्यवस्थाएँ कठोर थीं व जल, अग्नि तथा विष द्वारा दिव्य परीक्षाएँ ली जाती थी। मेगस्थनीज कहता है कि मौर्य काल में अपराध प्रायः नहीं होते थे तथा लोग अपने घरों में ताला नहीं लगाते थे। 

गुप्तचर व्यवस्था- 

मौर्य काल में यह विभाग एक पृथक अमात्य के अधीन रखा गया था जिसे 'महामात्यापसर्प' कहा जाता था । गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में 'गूढ़पुरुष' कहा गया है।

अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख है।

संस्था- एक ही स्थान पर रहने वाले। 
संचरा- प्रत्येक स्थानों में भ्रमण करने वाले।

सेना- मौर्य सेना का प्रबंध छ: समितियों द्वारा होता था । प्रत्येक समिति में पाँच-पाँच सदस्य होते थे। ये समितियाँ छ: विभाग देखती थी, जो निम्न थे-
जल सेना, पैदल सेना, सामग्री, अश्व, रथ व गज।       

मौर्यकालीन समाज

सामाजिक जीवन: - मौर्यकाल में वर्ण व्यवस्था कठोर होकर जाति के रूप में बदल गयी जिसका आधार जन्म था।

मेगस्थनीज ने भारतीय समाज में सात वर्गों का उल्लेख  किया है। 

(1) दार्शनिक
(2) कृषक
(3) सैनिक
(4) पशुपालक व चरवाहे
(5) निरीक्षक
(6) मंत्री
(7) शिल्पी।

मेगस्थनीन भारत में दास-प्रथा का  उल्लेख नहीं करता।
अर्थशास्त्र में "वार्ता " अर्थात कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य की शुद्र के धर्म बतलाया गया है।
मौर्यकाल में संयुक्त परिवार प्रथा थी व आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे।
उच्च जाति के व्यक्ति का अपने नीचे की जाति की स्त्री से विवाह अनुलोम  विवाह तथा उच्च जातीय कन्या का निम्न जातीय वर के साथ विवाह प्रतिलोम विवाह कहलाता था।
मेगस्थनीज के अनुसार लोग मितव्ययी तथा उच्च नैतिक आचरण वाले होते थे।

आर्थिक जीवन:

मौर्यकाल में अधिकांश जनता के जीवन का प्रमुख आधार कृषि था। इस काल में हमें गेहूँ, जौ, चावल, विभिन्न प्रकार की दालें व कपास तथा गन्ना की सूचना मिलती है। कृषि के क्षेत्र में इस काल में लौह  उपकरणों  की संख्या में वृद्धि हुई।
राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी 'सीताथ्यक्ष' या भूमिका को भाग' कहा जाता था यह उपज का 1/6 भाग होता था। राज्य की भूमि को 'सीता भूमि कहा जाता था। राजकीय भूमि से प्रात आय को 'सीता' कहा जाता था
व्यापारिक जहाजों का निर्माण मौर्य काल का एक प्रमुख उद्योग था । अस्त्र निर्माण व जहाज निर्माण पर राज्य का एकाधिकार था। 
भारत में मौर्य काल में पश्चिम भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्व में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह थे।
इस समय बंगाल अपने मलमल के व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध था।
खान उधोग में लौह, तांबे एवं सोने के खनन पर विशेष बल दिया गया। मगध क्षेत्र में लौह का उत्पादन होता था दक्षिण में सुवर्णागिरी शब्द का प्रयोग उस क्षेत्र की सोने की खान से निकटता को दर्शाता है।
इस काल में वस्त्र निर्माण एक महत्वपूर्ण उद्योग था।
व्यापारिक मार्ग: मौर्यकाल में व्यापारिक मार्ग के रूप में 'उत्तरापथ का प्रचलन था। मार्ग निर्माण राज्य का विशेष दायित्व था मेगस्थनीज के अनुसार इसके लिए एक एग्रोनोमाई' नामक अधिकारी था। उत्तरापथ पुरब   में ताम्रलिप्ति बंदरगाह को पशिचम में भड़ौच से तथा उत्तर पश्चिम में तक्षशिला से जोड़ता था।
मौयकालीन उधोग-धंधो की संस्थाओं को श्रेणी' कहा जाता था। श्रेणियों के अपने न्यायालय होते थे व श्रेणी न्यायालय का प्रधान 'महाश्रेष्टि' कहलाता था।
मौयकाल में सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। चाँदी के सिक्कों को 'कार्षापण;। या धरण तथा तांबे के सिक्कों को 'माषक कहा जाता था। अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है जिसका अध्यक्ष 'लक्षणाध्यक्ष होता था व मुद्राओं का परीक्षण करने वाला अधिकारी रुपदर्शक ' कहलाता था। 
मौयकाल में प्रथम बार कर प्रणाली की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की
मौर्यकाल में वाणिज्य व्यापार में भी राज्य की भागीदारी थी। राजकीय वस्तु  राजपण्य' कहलाती थी।व्यापारिक गतिविधियों एक पण्याध्यक्ष' नामक अधिकारी के निरीक्षण में रखी गई थी। राज्य के द्वारा वस्तुओं पर वस्तु  सीमाशुल्क एवं व्यापारिक कर लगाए जाते थे।
इस काल में आहत मुद्राओं (Punch marked coins)की प्रचुरता थी। 
नगरीकरण- अशोक के अभिलेखों में पाटलिपुत्र के अतिरिक्त सात नगरों का जिक्र हुआ है। ये हैं

1. तक्षशिला, 2. तोशली, 3, इशिला, 4. उज्जैन, 5. सम्पा, 6.कोशाम्बी एवं 7. सवर्णगिरी
 इसके अतिरिक्त मेगस्थनीज ने मथुरा का भी जिक्र किया है।

मौर्यों का वैदेशिक संपर्क:

मौर्यों की विदेश नीति पश्चिमी पड़ोसियों की ओर विशेष रूप से केन्द्रित रही जबकि पूरब को तरफ उन्होंने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसका कारण यह था कि मौर्य राज्य की नींव पश्चिमी शक्ति के साथ संघर्ष के बाद ही पड़ी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सिंकदर की मृत्यु से उत्पन्न अव्यवस्था लाभ उठाकर उत्तर-पश्चिम में ही मौर्य राज्य की स्थापना की थी।

सेल्युकस निकेटर के साथ हुए युद्ध से चन्द्रगुप्त को एरियाना का क्षेत्र प्राप्त हुआ। इसके साथ ही उत्तर-पश्चिम में उसकी सीमा हिन्दुकुश तक पहुँच गयी। चन्द्रगुत मौर्य ने कूटनीति के माध्यम से अपनी सैनिक विजय को स्थायित्व प्रदान करना चाहा। यही वजह है कि मौर्य साम्राज्य एवं सीरियाई साम्राज्य के बीच अच्छे तालुकात कायम हुए और सेल्युकस के राजदूत के रूप में मेगस्थनीज कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा।

चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिंदुसार ने भी पश्चिमी पड़ोसियों से संपर्क बनाए रखा। बिंदुसार के दरबार में एक सीरियाई राजदूत डायमेकस रहा था। बिंदुसार के संबंध मिस्र के शासक टॉलेमी से भी रहे थे क्योंकि उसके दरबार में टॉलेमी का राजदूत डायोनिसिस भी रहा था।

अशोक की विदेश नीति 'जीओ और जीने दो के सिद्धान्त पर आधारित थी। उसने धम्म विजय की नीति अपनाई। उसने अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था। इस प्रकार मौर्य शासकों में अशोक प्रथम शासक था जिसने पश्चिमी राज्यों के अतिरिक्त दक्षिण के पड़ोसी राज्यों के साथ संबंधों पर विशेष बल दिया। श्रीलंका के एक शासक तिष्य ने अशोक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर 'देवनामप्रिय' को उपाधि धारण की ।              

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

अशोक के उत्तराधिकारी योग्य नहीं थे वे परिस्थितियों के अनुकूल नवीन नीति अख्तियार नहीं कर सके। अतः साम्राज्य विघटित हो गया।
एक साम्राज्यवादी ढाँचे के लिए दो मूलभूत बातें आवश्यक है
सुसंगठित प्रशासन तथा " प्रजा की राजनीतिक निष्ठा। 
मौर्यों का प्रशासन यद्यपि व्यावहारिक रूप से सुसंगठित था, परन्तु उसमें एक बुनियादी कमजोरी थी। इस प्रणाली में नौकरशाही का बहुत ज्यादा केन्द्रीकरण था जिसमें मूल केन्द्र बिंदु शासक था और सारी निष्ठा का लक्ष्य व्यक्तिगत रूप से राजा होता था। मौर्यों के अन्तर्गत व्यावसायिक नौकरशाही का विकास नहीं हो सका था वरन् नौकरशाही व्यक्तिगत निष्ठा के माध्यम से विभिन्न शासकों से जुड़ी हुई थी। अत: परवर्ती मौर्यों के समय तेजी से शासक बदलने के कारण राजनीतिक व प्रशासनिक अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई। 

अशोक की धम्म नीति ने साम्राज्य के सैन्य आधार को कमजोर  किया था क्योंकि धम्म नीति के कारण युद्ध व विस्तार की नीति छोड़ दिए जाने के कारण सैन्य व्यवस्था का आर्थिक लाभ समान हो चुका था जबकि अर्थव्यवस्था पर सैन्य खर्च का दबाव लगातार बना रहा था नीति के तहत अशोक के कल्याणकारी कार्यों ने अर्थव्यवस्था पर अधिभार को बढ़ा दिया था।

मौर्य शासकों के द्वारा दूरवर्ती क्षेत्रों का पर्याप्त आर्थिक दोहन नहीं किया जा सका था। अतः एक साम्राज्य के संचालन के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी पड़ने लगी।

मौर्य अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक दबाव था। सेना के रक्षणावेक्षण के लिए, अधिकारियों को वेतन देने तथा नई साफ की गई भूमि पर बस्तियाँ बसाने के लिए एक बहुत बड़े परिमाण में राजस्व की आवश्यकता ने कोष को निश्चित रूप से भारग्रस्त किया होगा। राजस्व प्राप्ति के सामान्य साधन मौर्य साम्राज्य के लिए पर्याप्त नहीं थे।          

मौर्यकाल में सांस्कृतिक विकास  

मौर्य युग कला की दृष्टि से विशिष्ट युग था। एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था, लिपि का आविष्कार और मुद्राओं के प्रयोग के साथ-साथ स्थापत्य और कला के क्षेत्र में पत्थर का प्रयोग सर्वप्रथम इसी युग में प्रारम्भ हुआ। कला क इतिहास में माध्यम का परिवर्तन मौर्य युग की बहुत बड़ी देन थी। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी। अत: बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ललित कलाओं का उपयोग किया गया था। भवन निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि का उपयोग बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किया गया था। 

मौर्यकालीन कला और स्थापत्य को निम्न प्रकार समझा जा सकता है

रामप्रसाद और प्राचीर: 

मौर्यों के स्थापत्य वैभव की सूचना मैगस्थनीज और कौटिल्य के ग्रंथों से मिलती है। मैगस्थनीज ने पाटलीपुत्र नगर और मौर्य राजप्रसाद का विवरण दिया है। 
मौर्य सम्राटों की राजधानी पाटलिपुत्र  एक बहुत ही विशाल नगरी थी, जो गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित थी। इसका लैटिन नाम पालिब्रोथा था। इसका निर्माण एक दुर्ग के रूप में हुआ था। पाटलिपुत्रनगर एक प्राचीर से घिरा हुआ था जिसमें चौंसठ द्वार और 570 बुर्ज थे। 
इसका प्रासाद लकड़ी का बना हुआ था। कौटिल्य ने भी नगरों व उनमें निर्मित भवनों व राजप्रसादों का बहुत भव्य विवरण दिया है। 
मैगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर के चारों ओर लकड़ी की एक प्राचीर और परिखा का उल्लेख किया है। मौर्यकालीन भवनों का सबसे सुन्दर उदाहरण पटना के निकट कुम्हार में मौर्य प्रासाद में दिखाई देता है। 
मुद्राराक्षस के अनुसार पाटलिपुत्र नगर की सुरक्षा के लिये लकड़ी की चारदीवारी का भी निर्माण किया गया था, जिसमें तीरंदाजी के लिये अनेक छिद्र बने थे।

'राजतरंगिणी' के अनुसार अशोक ने श्रीनगर व देवपाटन नगरों की स्थापना करवाई।

मौर्य स्तम्भः 

मौर्ययुग में पत्थर के स्तम्भ बनाने की परम्परा दिखाई देती है। ये स्तम्भ साधारणत: 'अशोक की लाट' के नाम से प्रसिद्ध हैं। अशोक के स्तम्भ निम्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं
  1. बसरा बखीरा (बसाड़) 
  2. संकिस्सा
  3. रामपुरवा
  4. रुम्मनदेई
  5. मेरठ
  6. प्रयाग
  7. बेसनगर
  8. लौरिया नन्दनगढ़
  9. निगलीवा
  10. कौशाम्बी
  11.  एरण
  12. .सारनाथ

इन स्तम्भों पर अपने अभिलेख लिखवा कर अशोक ने प्रेम, सहिष्णुता और सौहार्द का संदेश दिया। ये स्तम्भ चुनार के पत्थर के बने हैं। इन स्तम्भों के शीर्ष अधिकतर पशुओं की आकृति से मण्डित हैं। प्रायः इन शीर्षों पर सिंह, हाथी या वृषभ की आकृति प्राप्त हुई है।

मौर्य स्तम्भों की शीर्ष मूर्तियों के पाँच अंग हैं

1. मेखला
2. घंटा या उल्टा कमल
3. चौकी
4. पशुमूर्ति
5. चक्र

विश्व कला के इतिहास में मौर्य स्तम्भों जैसे स्तम्भ अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। मौर्य कालीन स्तम्भों पर एक विशेष प्रकार की चमक मिलती है।

अशोक के एकाश्म स्तम्भ- 

मौर्यों की राजकीय कला का सर्वोत्तम उदाहरण उच्च कोटि के पॉलिसयुक्त विशाल एवं सुरुचिपूर्ण आकार वाले स्तंभ हैं जो एकाश्म तथा स्वतंत्र रूप से स्थापित हैं। ये स्तंभ बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। इसके ऊपर काली लेप लगाई जाती थी जिसकी चमक आज भी विद्यमान है। आकार एवं अवधारणा के अंतर के बावजूद इन पर अखमनी प्रभाव झलकता है।

सारनाथ का स्तम्भ- 

यह अशोक के स्तम्भों का सर्वश्रेष्ठ नमूना है जो हल्के गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से निर्मित है । इसमें चार सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए तथा चारों दिशाओं की ओर मुँह किए हुए हैं। इसमें महाधर्मचक्र है जिसमें 24 तीलियाँ है। सिंहों के नीचे की फलक पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए हैं। इसी पर चार पशुओं- गज, सिंह, बैल व अश्व की आकृतियाँ उत्कीर्ण है। इसकी विशेषता के कारण भारत सरकार ने इसको भारत का राष्ट्रीय चिह्न (National Em- blem) स्वीकार किया है।

गुफाएँ- 

'सातघर': अशोक और उसके पौत्र दशरथ ने पहाड़ को काटकर गुहा बनाने की परम्परा प्रारम्भ की। इस युग में बिहार में नागार्जुन और बाराबार की पहाड़ियों को काटकर निर्गर्न्थो व साधुओं(आजीवकों) के लिए गुफाओं का निर्माण करवाया गया। 
ये गुहाएँ गिनती में सात हैं इसलिए इन्हें 'सातघर' कहा जाता है। इन गुहाओं को लकड़ी की झौपड़ियों की अनुकृति पर निर्मित किया गया है। इन सात गुहाओं में बाराबार की पहाड़ी में चार- कर्ण चौपड़, सुदामा, लोमश ऋषि व विश्व झोंपड़ी की गुफा तथा नागार्जुन की पहाड़ी में दशरथ द्वारा निर्मित करवाई गई तीन गुहाएँ- गोपिका, वदथिक और वहियक हैं। इन तीनों में गोपिका गुफा मुख्य है जिसका निर्माण दशरथ ने अपने राज्याभिषेक के वर्ष में कराया था। 'सुदामा की गुफा' का निर्माण अशोक ने अपने शासनकाल के 12वें वर्ष तथा 'कर्ण चौपड़ ' की गुफा का 19वें वर्ष में कराया था। 'विश्व झापड़ी की गुफा का निर्माण अशोक के शासनकाल के 12 वें वर्ष में हुआ था। इन सभी गुहाओं में लोमश ऋषि गुफा अपने अलंकृत प्रवेश द्वार के लिए प्रसिद्ध है। यह दशरथ के समय बनी थी। यह बाराबार समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है। 
इनके अतिरिक्त राजगृह से 13 मील की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी गुफा है। इन गुफाओं से अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का जानकारी होती है।

चैत्य: 

चैत्यों का स्तूपों के साथ घना सम्बन्ध रहा है। जिस कक्ष में पूजा और आराधना होती थी उसे चैत्य कहते थे। अजन्ता का हीनयानी चैत्यगृह अशोक के काल का है। पूना के समीप भाजा की गुफा और इसका चैत्य सर्वाधिक प्राचीन माना गया है। इसका निर्माण लगभग 200 ई. पू. हुआ था।

.स्तूप: 

बुद्ध और महान अर्हतों की अस्थियों पर बनायी गई समाधियाँ स्तूप कहलाती हैं। स्तूप मिट्टी, प्रस्तर अथवा पकी ईंटों की एक विशाल अर्द्ध गुबदांकार संरचना होती थी जिनमें बुद्ध और उनके महत्त्वपूर्ण शिष्यों के अवशेष या महत्वपूर्ण वस्तुओं को रखा जाता है। साँची और सारनाथ के स्तूप प्रसिद्ध । 
साँची का स्तूप वर्तमान में मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में विदिशा के समीप स्थित है। सबसे प्राचीन स्तूप नेपाल की सीमा पर पिपरहवा में है जो संभवत:अशोक से भी प्राचीन और शायद बुद्ध के कुछ ही काल बाद का बना है। इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम की ओर बुन्देलखण्ड की नागोद रियासत में भरहुत नामक स्थान पर एक विशाल स्तूप था। श्री कनिंघम ने सर्वप्रथम 1873 ई. में इस स्थान का पता लगाया था।

विहारः 

स्तूप और चैत्य दोनों प्राचीनकाल में शव-समाधि थे, फिर धीरे धीरे स्तूप घटनाओं के स्मारक बने और चैत्य देवालय बन गए। विहार वह स्थल था, जहाँ बौद्ध संघ निवास करता था, अर्थात् ये एक प्रकार के मठ थे। गोदावरी तट के प्राचीन नासिक का गौतमीपुत्र विहार हीनयान सम्प्रदाय का था।

धौली की हस्ति मूर्तिः 

मौर्य युग में उड़ीसा में धौली नामक स्थान पर चट्टान से काटकर एक विशाल हस्ति प्रतिमा के निर्माण का प्रयास किया गया। यह अधूरी मूर्ति है।    

यक्ष और यक्षणियों की मूर्तियाँ: 

इस युग की यक्ष और यक्षियों की मूर्तियाँ मथुरा के निकट परखम, बेसनगर, पटना, दीदारगंज, नोह, बड़ौदा, वाराणसी. अहिच्छत्र, अमीन और झींग का नगरा से प्राप्त हुई है। 

मौर्य काल में तीन प्रकार की मूर्तिकला शैलियाँ विकसित हुई- 

(1) गंधार शैली (2) मथुरा शैली (3) अमरावती शैली। गंधार शैली का जन्म गंधार (पाकिस्तान का पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश) में हुआ। गंधार कला को 'हिंद-यूनानी' कला भी कहते हैं क्योंकि इस कला के विषय तो भारतीय हैं, किंतु शैली यूनानी है। इसमें बुद्ध को कमलासन पर पारदर्शक कपड़ों में दर्शाया है। मथुरा शैली का विकास मथुरा में हुआ। यह स्वदेशी शैली 2A व इसमें लाल पत्थर का प्रयोग किया गया था जो मथुरा के निकट सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था। मथुरा शैली की मूर्तियों की विशेषता इनकी विशालता व मूर्तियों में सिंहासन का पाया जाना है। अमरावती शैली का विकास कृष्णा और गोदावरी के मुहाने पर अमरावती और गुन्टूर जिलों में हुआ। इन मूर्तियों की प्रमुख विशेषता-मूर्तियों में आभूषणों की भरमार व मूर्ति निर्माण में सफेद संगमरमर का प्रयोग थी।

लोककला: 

मौर्यकाल में राजकीय कला के अलावा स्वतंत्र रूप से लोककला का विकास भी हुआ। मिट्टी के सुंदर चमकदार बर्तन, काले पॉलिशदार मृदभांड, खिलौने और आभूषणों में इन कलाओं का उत्कर्ष मिलता है। इन कलाओं का विस्तार मथुरा से पाटलिपुत्र, विदिशा, कलिंग तथा सोपारा तक मिलता है।

शिक्षा में योगदानः मौर्यकाल में तक्षशिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था जहाँ देश-विदेश से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे।

मौर्यकालीन साहित्य व विज्ञान: मौर्यकाल को साहित्य-सृजन का काल कहा जाता है। इस काल में रचा गया प्रमुख साहित्य निम्न था-

सुबन्धु की 'वासवदत्ता'। सुबंधु बिंदुसार का मंत्री था।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र।
मैगस्थनीज की 'इंडिका'।
मोगलिपुत्रतिस्स ने 'कथावत' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ और भद्रबाहु 'कल्पसूत्र' की रचना की थी। 
जैन धर्म के आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र और समवायांग सूत्र का अधिकांश भाग इसी युग में लिखा गया।
जैन धर्म के ग्रंथ प्राकृत भाषा में तथा बौद्ध धर्म के ग्रंथ पाली भाषा में रचे गए।
कापिटकों का संग्रह इसी युग में हुआ।
इस काल में भाषाएँ तीन प्रमुख रूप से मुखरित हो रही थीं- संस्कृत, प्राकृत और पाली।

मौर्यकाल में दो प्रकार की लिपियाँ प्रयुक्त होती थी (1) ब्राह्मी लिपि, (2) खरोष्ठी लिपि।

खरोष्ठी लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाती थी। इस लिप का प्रयोग अशोक ने अपने पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अभिलेखों में किया। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था। यह लिपि बाईं और से दाहिनी ओर लिखी जाती थी।

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