वृहद शिलालेख: ये 14 विभिन्न लेखों के समूह हैं जो 8 स्थानों पर प्राप्त हुये हैं। ये स्थान हैं- शाहबाजगढ़ी य मनसेरा (पाकिस्तान) कालसी (उत्तराखण्ड), गिरनार (गुजरात) धौली व जोगढ़ (उड़ीसा), और एर्रागुडी़ (आन्ध्रप्रदेश) एवं सोपारा (महाराष्ट्र)। ये शिलालेख निम्न हैं-
कलिंग शिलालेख
दो पृथक कलिंग प्रज्ञापन (Two Separate Kalinga Edicts)- उड़ीसा के धौली व जौगढ़ स्थानों पर ये प्रज्ञापन मिले हैं। इनमें अन्य बातों के अलावा कलिंग राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति के विषय में बताया गया है। वह कलिंग के नगर व्यावहारिकों (न्याय अधिकारी) को न्याय के मामले में उदार व निष्पक्ष होने का आदेश देता है। इसमें अशोक यह घोषित करता है कि सारी प्रजा मेरी संतान है'।
लघु शिलालेख-
अशोक के लघु शिलालेख विभिन्न क्षेत्रों जैसे रूपनाथ, सासाराम, दिल्ली, गुर्जरा, भाब्रू (बैराठ), मास्की, ब्रह्मगिरी, सिद्धपुर, जटिंग रामेश्वर, एरंगुड़ी, गोविमठ, पालकी गुण्डु, राजुल मंडगिरि तथा उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर में स्थित अहरौरा से प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा मध्यप्रदेश के सारो-मारो तथा पनगुड़िया एवं नेत्तुर (नेट्र) तथा कर्नाटक के उदयगोलम तथा सन्नाती से भी लघु शिलालेखों की प्राप्ति हुई है। मास्की, गुर्जरा, उदयगोलम तथा नेट्टर से प्राप्त शिलालेखों में अशोक को उसके व्यक्तिगत नाम से पुकारा गया है। मास्की शिलालेख में उसका नाम 'अशोक देवानामप्रिय' मिलता है। मास्की शिलालेख रायचूर ( कर्नाटक) में स्थित है।
स्तम्भ लेख
इन लेखों की संख्या 7 है जो छ: विभिन्न स्थानों पर मिले हैं। दिल्ली-टोपरा, दिल्ली-मेरठ, लौरिया अरेराज, लौरिया नंदनगढ़, रामपुरवा व प्रयोग (इलाहाबाद)। प्रयाग का शिलालेख पहले कौशाम्बी में स्थापित किया था जिसे बाद में प्रयाग में स्थापित किया गया।
लघु स्तंभलेख-
अशोक के लघु स्तम्भ लेख निम्नांकित स्थानों पर स्थापित है-
साँची, सारनाथ, कौशाम्बी, निगाली सागर (निग्लीवा, नेपाल), रुम्मिनदेई (नेपाल)। इन स्तम्भों पर राजकीय घोषणाएँ खुदी हुई है। कौशाम्बी के लघु स्तम्भ लेख में अशोक अपने महामात्रों को आदेश देता है कि वह संघ भेद को रोके। इसी स्तंभ लेख में अशोक की रानी 'करूवाकी' (तीवर की माँ) द्वारा दान दिए जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख को रानी का अभिलेख भी कहा जाता है। रूम्मिनदेई अभिलेख से अशोक के काल के करारोपण पर प्रकाश पड़ता है। 'रुम्मिनदेई स्तम्भ लेखों से ज्ञात होता है कि अशोक ने बुद्ध के जीवन से संबंधित पवित्र स्थानों की यात्रा की थी। रुम्मिनदेई स्तम्भ लेख अशोक के राजकाल के20वें वर्ष का है।
महत्वपूर्ण तथ्यः
मौर्य शासकों का राजत्व अशोक के धौली अभिलेख में अभिव्यक्त हुआ है। इसमें अशोक यह घोषित करता है कि 'सारी प्रजा मेरी संतान है।' इस प्रकार इसमें लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का पता चलता है।
अशोक के दूसरे और 11वें शिलालेख में धम्म नीति की व्याख्या की गई है।
उसके तीसरे, पाँचवें और छठे शिलालेख से उसकी प्रशासनिक नीति पर प्रकाश पड़ता है। • दिल्ली-टोपरा स्तंभ लेख में आजीवक का जिक्र है तथा उसे जैनों से पहले स्थान दिया गया है।
अशोक के स्तंभ लेखों में दिल्ली-टोपरा का स्तंभ लेख एकमात्र ऐसा अभिलेख है जिस पर अशोक के सात आदेश खुदे हैं जबकि वाकी स्तंभ लेखों पर अशोक के केवल छ: आदेश मिलते हैं।
जे.एच. हेरिंगटन ने 1786 में बाराबार तथा नागार्जुनी पर्वतीय गुफा के शिलालेखों की खोज की। • जेम्स टॉड ने 1822 में गिरनार शिलालेख की खोज की।
कार्लाइल ने 1872 में रामपुरवा स्तंभ लेख तथा बैराठ के लघु शिलालेख का पता लगाया।
फीहरर ने 1895 में निगाली सागर स्तंभ लेख की खोज की तथा 1896 में रुम्मिनदेई स्तंभ लेख की खोज की। • ओरटैल ने 1905 में सारनाथ स्तंभ लेख की खोज की।
कुछ अभिलेख अपने मूल स्थान से हटाकर अन्य स्थानों पर ले जाए गए हैं। उदाहरण के लिये फिरोजशाह तुगलक के समय मेरठ तथा टोपरा के स्तंभ अभिलेख दिल्ली ले जाये गए। टोपरा का अभिलेख पहले उत्तरप्रदेश के सहारनपुर (खिज्राबाद) जिल में टोपरा नामक स्थान पर गड़ा हुआ था। उसी तरह इलाहाबाद का स्तंभ शिलालेख पहले कौशांबी में था। • बैराठ अभिलेख को अध्ययन के लिए कनिंघम महोदय द्वारा कलकत्ता संग्रहालय लाया गया था।
अशोक के बैराठ व भाव अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि राजस्थान पर मौर्यों का नियंत्रण रहा था। मध्य भारत का क्षेत्र भी मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। भाब्रू शिलालेख ऐसा एकमात्र शिलालेख है जिसमें अशोक ने 7 बौद्ध पुस्तकों के नाम बताए हैं।
भड़ौच मौर्यों के अधीन एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था।
गंगा-यमुना के ऊपरी दोआब और मध्य दोआब के क्षेत्र मौर्यों के केन्द्रीय क्षेत्र रहे थे। अशोक के स्तम्भ अभिलेख इन्हीं क्षेत्रों से मिले हैं।
सर्वप्रथम 'जीओ और जीने दो' का पाठ अशोक ने पढ़ाया था। • सर्वप्रथम ग्रेनवेडेल महोदय ने बताया कि 'मयूर' मौर्यों का राजवंशीय चिह्न (Dynastic Emblem) था। • मौर्यकाल में तक्षशिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था।
पाटलीपुत्र गंगा व सोन नदी के संगम पर स्थित था। पाटलीपुत्र का लैटिन नाम 'पालिब्रोथा' था।
परवर्ती मौर्य सम्राट ( 236-184 ई. पू.)
विभिन्न साहित्यिक स्रोत अशोक के पश्चात् 9 या 10 राजाओं का उल्लेख करते हैं जिसमें कुणाल, दशरथ, सम्प्रति व बृहद्रथ प्रमुख है।
बृहदथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था जिसकी हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. में सेना का निरीक्षण करते समय कर दी थी एवं शुंगवंश के शासन की स्थापना की थी।
मौर्य प्रशासन
चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में भारत ने सर्वप्रथम राजनीतिक केन्द्रीकरण के दर्शन किये गए तथा चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा को व्यावहारिक रूप प्रदान किया गया। यह नौकरशाही पर आधारित प्रशासन था। मौर्य साम्राज्य में प्राचीन भारत में सर्वाधिक विशाल नौकरशाही थी।
केन्द्रीय शासन
मौर्य साम्राज्य एक केन्द्रीकृत प्रशासन था जिसकी पहुँच नागरिक जीवन के सभी क्षेत्रों में थी तथा इसकी चिंता बाजार-व्यवस्था के नियंत्रण से लेकर नागरिक जीवन में नैतिक मूल्यों की सुरक्षा तक थी। मौर्य आ साम्राज्य की राजतंत्रात्मक शासन पद्धति में राजा केन्द्रीय शासन का प्रमुख था। राजशक्ति 'निरकुंश पितृसत्तावाद' पर आधारित थी।
प्रशासनिक विभाग- मौर्य प्रशासन में उच्च अधिकारियों को 'तीर्थ' कहा जाता था। इनकी संख्या 18-थी। इन्हें महामात्य की संज्ञा भी दी गयी है।
18 तीर्थ (महामात्य)
- प्रधान महामात्य व पुरोहित- प्रधानमंत्री
- समाहर्ता - राजस्व विभाग का प्रधान
- सन्निधाता - राजकीय कोषाध्यक्ष
- सेनापति - युद्ध विभाग का मंत्री
- युवराज - राजा का उत्तराधिकारी
- प्रदेष्टा - फौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश
- व्यावहारिक - नगर का प्रमुख न्यायाधीश
- सेनानायक - सेना का संचालक
- मंत्रिपरिपदाध्यक्ष - परिषद का अध्यक्ष
- दण्डपाल - पुलिस अधिकारी
- अन्तपाल - सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक
- दुर्गपाल - देश के भीतरी भागों के दुर्गों का रक्षक
- आन्तर्वशिक - अन्त:पुर का प्रधान
- आरविक - वन-विभाग का प्रधान।
- पौर अथवा नागरिक - नगर का प्रमुख अधिकारी/कोतवाल
- कार्मान्तिक - उद्योगों एवं कारखानों का अध्यक्ष
- दौवारिक - राजमहलों की देखरेख करने वाला प्रधान
- प्रशास्ता - अक्षपटल का प्रमुख जो राज्य के समस्त विवरण सुरक्षित रखता था।
उपर्युक्त अधिकारियों के अतिरिक्त कुछ अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें अध्यक्ष कहा जाता था।
प्रांतीय प्रशासन-
प्रशासन के सुचारू रूप से संचालन हेतु मौर्य साम्राज्य 5 प्रांतों में विभाजित था।
प्रांत - राजधानी
उत्तरापथ - तक्षशिला
अवन्तिराष्ट्र - उज्जैयनी
दक्षिणापथ - स्वर्णगिरी
कलिंग - तोसलि
मध्यदेश (प्राच्य/प्राशी ) - पाटलिपुत्र
प्रांतपति कुमार अथवा आर्यपुत्र कहे जाते थे। उनके कार्यों में सहायता एवं मंत्रणा के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी परन्तु इस मंत्रिपरिषद को अनेक विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त थी।
प्रत्येक प्रांत 'जनपदों में विभक्त था। 800 ग्रामों का एक जनपद होता था। 400 ग्रामों की इकाई को स्थानीय, 200 ग्रामों की इकाई को खार्वटीक 100 ग्रामों की इकाई को संग्रहण कहा जाता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।
ग्राम-प्रशासन-
ग्राम का अध्यक्ष 'ग्रामणी' होता था। ग्रामसभा के कार्यालय का कार्य 'गोप' नामक कर्मचारी किया करते थे। 'गोप' नामक अधिकारी जनगणना के कार्यों से भी सम्बद्ध था।
नगर-प्रशासन-
मौर्य साम्राज्य में नगर प्रशासन का प्रधान 'नगरक' नामक अधिकारी होता था। 'नगरक' की सहायता एवं मंत्रणा के लिए समाहर्ता व प्रादेशिक नामक अधिकारी भी होता था। मेगस्थनीज की इंडिका में विस्तार से पाटलीपुत्र के नगर-प्रशासन की चर्चा की गई है। मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र में 6 प्रशासनिक समितियों का वर्णन किया है। ये समितियाँ नगर प्रशासक के अधीन कार्य करती थी। प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे कुल मिलाकर तीस सदस्य नगर का प्रशासन देखते थे।
नगर-समितियाँ
- शिल्पकला समिति
- वैदेशिक समिति
- जनसंख्या समिति
- उद्योग समिति
- व्यापार वाणिज्य समिति
- कर समिति
न्याय व्यवस्था-
मौर्य काल में सबसे छोटा न्यायालय 'ग्राम सभा थी। इसके ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख और जनपदीय न्यायालय होते थे। राजा स्वयं न्याय की सर्वोच्च संस्था था। मौर्यकाल में दो प्रकार के न्यायालय होते थे।
धर्मस्थीय-
ये दीवानी न्यायालय थे, जो लोगों के पारस्परिक मामले सुनते थे। उदाहरण के लिए चोरी डाके, मार- पीट इत्यादि के मामले। इस न्यायालय का प्रमुख न्यायाधीश 'व्यावहारिक' होता था।
कंटकशोधन-
ये फौजदारी न्यायालय थे। ये राज्य एवं व्यक्ति के मध्य विवादित मामलों में न्याय करते थे। इनका प्रमुख न्यायाधीश 'प्रदेष्टा होता था।
मौर्यकालीन दंड व्यवस्थाएँ कठोर थीं व जल, अग्नि तथा विष द्वारा दिव्य परीक्षाएँ ली जाती थी। मेगस्थनीज कहता है कि मौर्य काल में अपराध प्रायः नहीं होते थे तथा लोग अपने घरों में ताला नहीं लगाते थे।
गुप्तचर व्यवस्था-
मौर्य काल में यह विभाग एक पृथक अमात्य के अधीन रखा गया था जिसे 'महामात्यापसर्प' कहा जाता था । गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में 'गूढ़पुरुष' कहा गया है।
अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख है।
संस्था- एक ही स्थान पर रहने वाले।
संचरा- प्रत्येक स्थानों में भ्रमण करने वाले।
सेना- मौर्य सेना का प्रबंध छ: समितियों द्वारा होता था । प्रत्येक समिति में पाँच-पाँच सदस्य होते थे। ये समितियाँ छ: विभाग देखती थी, जो निम्न थे-
जल सेना, पैदल सेना, सामग्री, अश्व, रथ व गज।
मौर्यकालीन समाज
सामाजिक जीवन: - मौर्यकाल में वर्ण व्यवस्था कठोर होकर जाति के रूप में बदल गयी जिसका आधार जन्म था।
मेगस्थनीज ने भारतीय समाज में सात वर्गों का उल्लेख किया है।
(1) दार्शनिक
(2) कृषक
(3) सैनिक
(4) पशुपालक व चरवाहे
(5) निरीक्षक
(6) मंत्री
(7) शिल्पी।
मेगस्थनीन भारत में दास-प्रथा का उल्लेख नहीं करता।
अर्थशास्त्र में "वार्ता " अर्थात कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य की शुद्र के धर्म बतलाया गया है।
मौर्यकाल में संयुक्त परिवार प्रथा थी व आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे।
उच्च जाति के व्यक्ति का अपने नीचे की जाति की स्त्री से विवाह अनुलोम विवाह तथा उच्च जातीय कन्या का निम्न जातीय वर के साथ विवाह प्रतिलोम विवाह कहलाता था।
मेगस्थनीज के अनुसार लोग मितव्ययी तथा उच्च नैतिक आचरण वाले होते थे।
आर्थिक जीवन:
मौर्यकाल में अधिकांश जनता के जीवन का प्रमुख आधार कृषि था। इस काल में हमें गेहूँ, जौ, चावल, विभिन्न प्रकार की दालें व कपास तथा गन्ना की सूचना मिलती है। कृषि के क्षेत्र में इस काल में लौह उपकरणों की संख्या में वृद्धि हुई।
राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी 'सीताथ्यक्ष' या भूमिका को भाग' कहा जाता था यह उपज का 1/6 भाग होता था। राज्य की भूमि को 'सीता भूमि कहा जाता था। राजकीय भूमि से प्रात आय को 'सीता' कहा जाता था
व्यापारिक जहाजों का निर्माण मौर्य काल का एक प्रमुख उद्योग था । अस्त्र निर्माण व जहाज निर्माण पर राज्य का एकाधिकार था।
भारत में मौर्य काल में पश्चिम भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्व में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह थे।
इस समय बंगाल अपने मलमल के व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध था।
खान उधोग में लौह, तांबे एवं सोने के खनन पर विशेष बल दिया गया। मगध क्षेत्र में लौह का उत्पादन होता था दक्षिण में सुवर्णागिरी शब्द का प्रयोग उस क्षेत्र की सोने की खान से निकटता को दर्शाता है।
इस काल में वस्त्र निर्माण एक महत्वपूर्ण उद्योग था।
व्यापारिक मार्ग: मौर्यकाल में व्यापारिक मार्ग के रूप में 'उत्तरापथ का प्रचलन था। मार्ग निर्माण राज्य का विशेष दायित्व था मेगस्थनीज के अनुसार इसके लिए एक एग्रोनोमाई' नामक अधिकारी था। उत्तरापथ पुरब में ताम्रलिप्ति बंदरगाह को पशिचम में भड़ौच से तथा उत्तर पश्चिम में तक्षशिला से जोड़ता था।
मौयकालीन उधोग-धंधो की संस्थाओं को श्रेणी' कहा जाता था। श्रेणियों के अपने न्यायालय होते थे व श्रेणी न्यायालय का प्रधान 'महाश्रेष्टि' कहलाता था।
मौयकाल में सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। चाँदी के सिक्कों को 'कार्षापण;। या धरण तथा तांबे के सिक्कों को 'माषक कहा जाता था। अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का भी उल्लेख मिलता है जिसका अध्यक्ष 'लक्षणाध्यक्ष होता था व मुद्राओं का परीक्षण करने वाला अधिकारी रुपदर्शक ' कहलाता था।
मौयकाल में प्रथम बार कर प्रणाली की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की
मौर्यकाल में वाणिज्य व्यापार में भी राज्य की भागीदारी थी। राजकीय वस्तु राजपण्य' कहलाती थी।व्यापारिक गतिविधियों एक पण्याध्यक्ष' नामक अधिकारी के निरीक्षण में रखी गई थी। राज्य के द्वारा वस्तुओं पर वस्तु सीमाशुल्क एवं व्यापारिक कर लगाए जाते थे।
इस काल में आहत मुद्राओं (Punch marked coins)की प्रचुरता थी।
नगरीकरण- अशोक के अभिलेखों में पाटलिपुत्र के अतिरिक्त सात नगरों का जिक्र हुआ है। ये हैं
1. तक्षशिला, 2. तोशली, 3, इशिला, 4. उज्जैन, 5. सम्पा, 6.कोशाम्बी एवं 7. सवर्णगिरी
इसके अतिरिक्त मेगस्थनीज ने मथुरा का भी जिक्र किया है।
मौर्यों का वैदेशिक संपर्क:
मौर्यों की विदेश नीति पश्चिमी पड़ोसियों की ओर विशेष रूप से केन्द्रित रही जबकि पूरब को तरफ उन्होंने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। इसका कारण यह था कि मौर्य राज्य की नींव पश्चिमी शक्ति के साथ संघर्ष के बाद ही पड़ी थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सिंकदर की मृत्यु से उत्पन्न अव्यवस्था लाभ उठाकर उत्तर-पश्चिम में ही मौर्य राज्य की स्थापना की थी।
सेल्युकस निकेटर के साथ हुए युद्ध से चन्द्रगुप्त को एरियाना का क्षेत्र प्राप्त हुआ। इसके साथ ही उत्तर-पश्चिम में उसकी सीमा हिन्दुकुश तक पहुँच गयी। चन्द्रगुत मौर्य ने कूटनीति के माध्यम से अपनी सैनिक विजय को स्थायित्व प्रदान करना चाहा। यही वजह है कि मौर्य साम्राज्य एवं सीरियाई साम्राज्य के बीच अच्छे तालुकात कायम हुए और सेल्युकस के राजदूत के रूप में मेगस्थनीज कई वर्षों तक चंद्रगुप्त के दरबार में रहा।
चन्द्रगुप्त के उत्तराधिकारी बिंदुसार ने भी पश्चिमी पड़ोसियों से संपर्क बनाए रखा। बिंदुसार के दरबार में एक सीरियाई राजदूत डायमेकस रहा था। बिंदुसार के संबंध मिस्र के शासक टॉलेमी से भी रहे थे क्योंकि उसके दरबार में टॉलेमी का राजदूत डायोनिसिस भी रहा था।
अशोक की विदेश नीति 'जीओ और जीने दो के सिद्धान्त पर आधारित थी। उसने धम्म विजय की नीति अपनाई। उसने अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था। इस प्रकार मौर्य शासकों में अशोक प्रथम शासक था जिसने पश्चिमी राज्यों के अतिरिक्त दक्षिण के पड़ोसी राज्यों के साथ संबंधों पर विशेष बल दिया। श्रीलंका के एक शासक तिष्य ने अशोक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर 'देवनामप्रिय' को उपाधि धारण की ।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण
अशोक के उत्तराधिकारी योग्य नहीं थे वे परिस्थितियों के अनुकूल नवीन नीति अख्तियार नहीं कर सके। अतः साम्राज्य विघटित हो गया।
एक साम्राज्यवादी ढाँचे के लिए दो मूलभूत बातें आवश्यक है
सुसंगठित प्रशासन तथा " प्रजा की राजनीतिक निष्ठा।
मौर्यों का प्रशासन यद्यपि व्यावहारिक रूप से सुसंगठित था, परन्तु उसमें एक बुनियादी कमजोरी थी। इस प्रणाली में नौकरशाही का बहुत ज्यादा केन्द्रीकरण था जिसमें मूल केन्द्र बिंदु शासक था और सारी निष्ठा का लक्ष्य व्यक्तिगत रूप से राजा होता था। मौर्यों के अन्तर्गत व्यावसायिक नौकरशाही का विकास नहीं हो सका था वरन् नौकरशाही व्यक्तिगत निष्ठा के माध्यम से विभिन्न शासकों से जुड़ी हुई थी। अत: परवर्ती मौर्यों के समय तेजी से शासक बदलने के कारण राजनीतिक व प्रशासनिक अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो गई।
अशोक की धम्म नीति ने साम्राज्य के सैन्य आधार को कमजोर किया था क्योंकि धम्म नीति के कारण युद्ध व विस्तार की नीति छोड़ दिए जाने के कारण सैन्य व्यवस्था का आर्थिक लाभ समान हो चुका था जबकि अर्थव्यवस्था पर सैन्य खर्च का दबाव लगातार बना रहा था नीति के तहत अशोक के कल्याणकारी कार्यों ने अर्थव्यवस्था पर अधिभार को बढ़ा दिया था।
मौर्य शासकों के द्वारा दूरवर्ती क्षेत्रों का पर्याप्त आर्थिक दोहन नहीं किया जा सका था। अतः एक साम्राज्य के संचालन के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी पड़ने लगी।
मौर्य अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक दबाव था। सेना के रक्षणावेक्षण के लिए, अधिकारियों को वेतन देने तथा नई साफ की गई भूमि पर बस्तियाँ बसाने के लिए एक बहुत बड़े परिमाण में राजस्व की आवश्यकता ने कोष को निश्चित रूप से भारग्रस्त किया होगा। राजस्व प्राप्ति के सामान्य साधन मौर्य साम्राज्य के लिए पर्याप्त नहीं थे।
मौर्यकाल में सांस्कृतिक विकास
मौर्य युग कला की दृष्टि से विशिष्ट युग था। एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था, लिपि का आविष्कार और मुद्राओं के प्रयोग के साथ-साथ स्थापत्य और कला के क्षेत्र में पत्थर का प्रयोग सर्वप्रथम इसी युग में प्रारम्भ हुआ। कला क इतिहास में माध्यम का परिवर्तन मौर्य युग की बहुत बड़ी देन थी। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म की प्रधानता थी। अत: बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए ललित कलाओं का उपयोग किया गया था। भवन निर्माण कला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि का उपयोग बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए किया गया था।
मौर्यकालीन कला और स्थापत्य को निम्न प्रकार समझा जा सकता है
रामप्रसाद और प्राचीर:
मौर्यों के स्थापत्य वैभव की सूचना मैगस्थनीज और कौटिल्य के ग्रंथों से मिलती है। मैगस्थनीज ने पाटलीपुत्र नगर और मौर्य राजप्रसाद का विवरण दिया है।
मौर्य सम्राटों की राजधानी पाटलिपुत्र एक बहुत ही विशाल नगरी थी, जो गंगा और सोन नदियों के संगम पर स्थित थी। इसका लैटिन नाम पालिब्रोथा था। इसका निर्माण एक दुर्ग के रूप में हुआ था। पाटलिपुत्रनगर एक प्राचीर से घिरा हुआ था जिसमें चौंसठ द्वार और 570 बुर्ज थे।
इसका प्रासाद लकड़ी का बना हुआ था। कौटिल्य ने भी नगरों व उनमें निर्मित भवनों व राजप्रसादों का बहुत भव्य विवरण दिया है।
मैगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर के चारों ओर लकड़ी की एक प्राचीर और परिखा का उल्लेख किया है। मौर्यकालीन भवनों का सबसे सुन्दर उदाहरण पटना के निकट कुम्हार में मौर्य प्रासाद में दिखाई देता है।
मुद्राराक्षस के अनुसार पाटलिपुत्र नगर की सुरक्षा के लिये लकड़ी की चारदीवारी का भी निर्माण किया गया था, जिसमें तीरंदाजी के लिये अनेक छिद्र बने थे।
'राजतरंगिणी' के अनुसार अशोक ने श्रीनगर व देवपाटन नगरों की स्थापना करवाई।
मौर्य स्तम्भः
मौर्ययुग में पत्थर के स्तम्भ बनाने की परम्परा दिखाई देती है। ये स्तम्भ साधारणत: 'अशोक की लाट' के नाम से प्रसिद्ध हैं। अशोक के स्तम्भ निम्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं
- बसरा बखीरा (बसाड़)
- संकिस्सा
- रामपुरवा
- रुम्मनदेई
- मेरठ
- प्रयाग
- बेसनगर
- लौरिया नन्दनगढ़
- निगलीवा
- कौशाम्बी
- एरण
- .सारनाथ
इन स्तम्भों पर अपने अभिलेख लिखवा कर अशोक ने प्रेम, सहिष्णुता और सौहार्द का संदेश दिया। ये स्तम्भ चुनार के पत्थर के बने हैं। इन स्तम्भों के शीर्ष अधिकतर पशुओं की आकृति से मण्डित हैं। प्रायः इन शीर्षों पर सिंह, हाथी या वृषभ की आकृति प्राप्त हुई है।
मौर्य स्तम्भों की शीर्ष मूर्तियों के पाँच अंग हैं
1. मेखला
2. घंटा या उल्टा कमल
3. चौकी
4. पशुमूर्ति
5. चक्र
विश्व कला के इतिहास में मौर्य स्तम्भों जैसे स्तम्भ अन्यत्र उपलब्ध नहीं हैं। मौर्य कालीन स्तम्भों पर एक विशेष प्रकार की चमक मिलती है।
अशोक के एकाश्म स्तम्भ-
मौर्यों की राजकीय कला का सर्वोत्तम उदाहरण उच्च कोटि के पॉलिसयुक्त विशाल एवं सुरुचिपूर्ण आकार वाले स्तंभ हैं जो एकाश्म तथा स्वतंत्र रूप से स्थापित हैं। ये स्तंभ बलुआ पत्थर से निर्मित हैं। इसके ऊपर काली लेप लगाई जाती थी जिसकी चमक आज भी विद्यमान है। आकार एवं अवधारणा के अंतर के बावजूद इन पर अखमनी प्रभाव झलकता है।
सारनाथ का स्तम्भ-
यह अशोक के स्तम्भों का सर्वश्रेष्ठ नमूना है जो हल्के गुलाबी रंग के बलुआ पत्थर से निर्मित है । इसमें चार सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए तथा चारों दिशाओं की ओर मुँह किए हुए हैं। इसमें महाधर्मचक्र है जिसमें 24 तीलियाँ है। सिंहों के नीचे की फलक पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए हैं। इसी पर चार पशुओं- गज, सिंह, बैल व अश्व की आकृतियाँ उत्कीर्ण है। इसकी विशेषता के कारण भारत सरकार ने इसको भारत का राष्ट्रीय चिह्न (National Em- blem) स्वीकार किया है।
गुफाएँ-
'सातघर': अशोक और उसके पौत्र दशरथ ने पहाड़ को काटकर गुहा बनाने की परम्परा प्रारम्भ की। इस युग में बिहार में नागार्जुन और बाराबार की पहाड़ियों को काटकर निर्गर्न्थो व साधुओं(आजीवकों) के लिए गुफाओं का निर्माण करवाया गया।
ये गुहाएँ गिनती में सात हैं इसलिए इन्हें 'सातघर' कहा जाता है। इन गुहाओं को लकड़ी की झौपड़ियों की अनुकृति पर निर्मित किया गया है। इन सात गुहाओं में बाराबार की पहाड़ी में चार- कर्ण चौपड़, सुदामा, लोमश ऋषि व विश्व झोंपड़ी की गुफा तथा नागार्जुन की पहाड़ी में दशरथ द्वारा निर्मित करवाई गई तीन गुहाएँ- गोपिका, वदथिक और वहियक हैं। इन तीनों में गोपिका गुफा मुख्य है जिसका निर्माण दशरथ ने अपने राज्याभिषेक के वर्ष में कराया था। 'सुदामा की गुफा' का निर्माण अशोक ने अपने शासनकाल के 12वें वर्ष तथा 'कर्ण चौपड़ ' की गुफा का 19वें वर्ष में कराया था। 'विश्व झापड़ी की गुफा का निर्माण अशोक के शासनकाल के 12 वें वर्ष में हुआ था। इन सभी गुहाओं में लोमश ऋषि गुफा अपने अलंकृत प्रवेश द्वार के लिए प्रसिद्ध है। यह दशरथ के समय बनी थी। यह बाराबार समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है।
इनके अतिरिक्त राजगृह से 13 मील की दूरी पर स्थित सीतामढ़ी गुफा है। इन गुफाओं से अशोक की धार्मिक सहिष्णुता का जानकारी होती है।
चैत्य:
चैत्यों का स्तूपों के साथ घना सम्बन्ध रहा है। जिस कक्ष में पूजा और आराधना होती थी उसे चैत्य कहते थे। अजन्ता का हीनयानी चैत्यगृह अशोक के काल का है। पूना के समीप भाजा की गुफा और इसका चैत्य सर्वाधिक प्राचीन माना गया है। इसका निर्माण लगभग 200 ई. पू. हुआ था।
.स्तूप:
बुद्ध और महान अर्हतों की अस्थियों पर बनायी गई समाधियाँ स्तूप कहलाती हैं। स्तूप मिट्टी, प्रस्तर अथवा पकी ईंटों की एक विशाल अर्द्ध गुबदांकार संरचना होती थी जिनमें बुद्ध और उनके महत्त्वपूर्ण शिष्यों के अवशेष या महत्वपूर्ण वस्तुओं को रखा जाता है। साँची और सारनाथ के स्तूप प्रसिद्ध ।
साँची का स्तूप वर्तमान में मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में विदिशा के समीप स्थित है। सबसे प्राचीन स्तूप नेपाल की सीमा पर पिपरहवा में है जो संभवत:अशोक से भी प्राचीन और शायद बुद्ध के कुछ ही काल बाद का बना है। इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम की ओर बुन्देलखण्ड की नागोद रियासत में भरहुत नामक स्थान पर एक विशाल स्तूप था। श्री कनिंघम ने सर्वप्रथम 1873 ई. में इस स्थान का पता लगाया था।
विहारः
स्तूप और चैत्य दोनों प्राचीनकाल में शव-समाधि थे, फिर धीरे धीरे स्तूप घटनाओं के स्मारक बने और चैत्य देवालय बन गए। विहार वह स्थल था, जहाँ बौद्ध संघ निवास करता था, अर्थात् ये एक प्रकार के मठ थे। गोदावरी तट के प्राचीन नासिक का गौतमीपुत्र विहार हीनयान सम्प्रदाय का था।
धौली की हस्ति मूर्तिः
मौर्य युग में उड़ीसा में धौली नामक स्थान पर चट्टान से काटकर एक विशाल हस्ति प्रतिमा के निर्माण का प्रयास किया गया। यह अधूरी मूर्ति है।
यक्ष और यक्षणियों की मूर्तियाँ:
इस युग की यक्ष और यक्षियों की मूर्तियाँ मथुरा के निकट परखम, बेसनगर, पटना, दीदारगंज, नोह, बड़ौदा, वाराणसी. अहिच्छत्र, अमीन और झींग का नगरा से प्राप्त हुई है।
मौर्य काल में तीन प्रकार की मूर्तिकला शैलियाँ विकसित हुई-
(1) गंधार शैली (2) मथुरा शैली (3) अमरावती शैली। गंधार शैली का जन्म गंधार (पाकिस्तान का पश्चिमोत्तर सीमा प्रदेश) में हुआ। गंधार कला को 'हिंद-यूनानी' कला भी कहते हैं क्योंकि इस कला के विषय तो भारतीय हैं, किंतु शैली यूनानी है। इसमें बुद्ध को कमलासन पर पारदर्शक कपड़ों में दर्शाया है। मथुरा शैली का विकास मथुरा में हुआ। यह स्वदेशी शैली 2A व इसमें लाल पत्थर का प्रयोग किया गया था जो मथुरा के निकट सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था। मथुरा शैली की मूर्तियों की विशेषता इनकी विशालता व मूर्तियों में सिंहासन का पाया जाना है। अमरावती शैली का विकास कृष्णा और गोदावरी के मुहाने पर अमरावती और गुन्टूर जिलों में हुआ। इन मूर्तियों की प्रमुख विशेषता-मूर्तियों में आभूषणों की भरमार व मूर्ति निर्माण में सफेद संगमरमर का प्रयोग थी।
लोककला:
मौर्यकाल में राजकीय कला के अलावा स्वतंत्र रूप से लोककला का विकास भी हुआ। मिट्टी के सुंदर चमकदार बर्तन, काले पॉलिशदार मृदभांड, खिलौने और आभूषणों में इन कलाओं का उत्कर्ष मिलता है। इन कलाओं का विस्तार मथुरा से पाटलिपुत्र, विदिशा, कलिंग तथा सोपारा तक मिलता है।
शिक्षा में योगदानः मौर्यकाल में तक्षशिला शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था जहाँ देश-विदेश से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने आते थे।
मौर्यकालीन साहित्य व विज्ञान: मौर्यकाल को साहित्य-सृजन का काल कहा जाता है। इस काल में रचा गया प्रमुख साहित्य निम्न था-
सुबन्धु की 'वासवदत्ता'। सुबंधु बिंदुसार का मंत्री था।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र।
मैगस्थनीज की 'इंडिका'।
मोगलिपुत्रतिस्स ने 'कथावत' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ और भद्रबाहु 'कल्पसूत्र' की रचना की थी।
जैन धर्म के आचारांग सूत्र, भगवती सूत्र और समवायांग सूत्र का अधिकांश भाग इसी युग में लिखा गया।
जैन धर्म के ग्रंथ प्राकृत भाषा में तथा बौद्ध धर्म के ग्रंथ पाली भाषा में रचे गए।
कापिटकों का संग्रह इसी युग में हुआ।
इस काल में भाषाएँ तीन प्रमुख रूप से मुखरित हो रही थीं- संस्कृत, प्राकृत और पाली।
मौर्यकाल में दो प्रकार की लिपियाँ प्रयुक्त होती थी (1) ब्राह्मी लिपि, (2) खरोष्ठी लिपि।
खरोष्ठी लिपि दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाती थी। इस लिप का प्रयोग अशोक ने अपने पश्चिमोत्तर प्रदेशों के अभिलेखों में किया। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग होता था। यह लिपि बाईं और से दाहिनी ओर लिखी जाती थी।
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