भागवत पुराण में कहा गया है,_
'उत्पन्ना द्रविड़े साहं वृद्धि कर्नाटके गता। क्वच्क्विचिन्महाराष्टे् गुर्जरे जीर्ण गता।
अर्थात् भक्ति द्रविड़ देश में जन्मी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ साल तक महाराष्ट्र में रहने के पश्चात् गुजरात में पहुँच कर जीर्ण हो गई।
भक्ति आंदोलन का प्रारंभ सातवीं से दसवीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत में अलवार संतों (वैष्णव भक्त) द्वारा किया गया। बाद में शैव नयनार संतों ने इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन संतो ने जनमानस में भक्ति भावना जगाने का कार्य किया। इन संतों ने भक्ति को मोक्ष का मार्ग बताया। इन्होंने पद, गीत, भजन, गाकर और स्थान-स्थान पर भ्रमण कर जनता में ईश्वर के प्रति भावनाओं और भक्ति जगाने का कार्य किया।
भक्ति तथा धार्मिक आंदोलनों का सूत्रपात दक्षिण में आठवीं शती के महान दार्शनिक शंकराचार्य के उदय के साथ हुआ था। उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के प्रथम प्रवर्तक रामानंद थे।
मध्यकाल भारत में धार्मिक विचारों के क्षेत्र में एक महान आंदोलन का विकास 15वीं व 16वीं शताब्दी में हुआ, जिसका संबंध मुख्य रूप से हिन्दू धर्म से ही था और जिसमें हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार के साथ-साथ हिंदू धर्म एवं इस्लाम के बीच सहिष्णुता को बढ़ावा देने का प्रयास भी किया गया।
भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत
शंकराचार्य
शंकराचार्य का जन्म केरल के कलादी ग्राम में शिवगुरु-आर्याम्बा नामक दम्पत्ति के कुटुम्ब में हुआ था। उनके पिता शिवगुरु और माता आर्याम्बाा थीं। इनकी इहलीला 32 वर्ष की आयु में समाप्त हो गई। उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार पीठे (मठ) स्थापित की
1. ज्योतिषपीठ - बद्रीनाथ
2. गोवर्धनपीठ - जगन्नाथपुरी
3. शारदापीठ - द्वारिकापुरी
4. शृंगेरीपीठ - दक्षिण में तुंगभद्रा नदी के तट पर।
अद्वैतवाद का प्रतिपादक शंकराचार्य को माना जाता है। अद्वैतवाद में ब्रह्म को परम सत्ता माना गया है और प्राणी का उद्देश्य उस परम ब्रह्म की सत्ता का दर्शन करना है। इन्होंने हिन्दू पुनर्जागरण आंदोलन की सर्वप्रथम गति प्रदान की। इन्होंने अद्वैतवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
रामानुज
दसवीं सदी में दक्षिण भारत में प्रसिद्ध आचार्य यमुनाचार्य ने वैष्णव सम्प्रदाय को वैदिक धारा का अभिन्न अंग सिद्ध करने का यत्न किया। इन्हीं के प्रिय शिष्य रामानुजाचार्य थे, जिनका जन्म 1017 ई. में आन्ध्र प्रदेश के तिरुपति नगर में हुआ था। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीभाष्य' की रचना की और भक्ति का एक नया दर्शन विशिष्टाद्वैत' प्रारंभ किया। इस दर्शन में राम को परब्रह्म मानकर उसको पूजा आराधना की जाती है, इसलिए यह रामावत सम्प्रदाय भी कहलाया। रामानुज ने समस्त भारत में अपने आचार्य नियुक्त किये और अपने मत का व्यापक प्रचार प्रसार किया। इन्होंने जाति व्यवस्था की भर्त्सना करते हुए मानव की समानता पर बल दिया। 'ग्रंथ वेदांत सार', 'वेदार्थ संग्रह', 'गीता की टीका' और 'वेदांत दीप' में उन्होंने दार्शनिक विचार दिए है। रामानुज ने अद्वैतवाद का खंडन करते हुए जीव-जगत् तथा ईश्वर को ही मूल तत्व माना और कहा कि ईश्वर सर्वोपरि, स्वतंत्र तथा नियामक है।
निम्बार्क
रामानुज के समकालीन दक्षिण भारत के सत निम्बार्क सम्प्रदाय की स्थापना की। आचार्य निम्बार्क द्वारा प्रवर्तित यह वैष्णव दर्शन 'हंस सम्प्रदाय' के नाम से भी जाना जाता था। उनका जन्म मद्रास के वेल्लारी जिले में हुआ। इन्होंने 'वेदान्त पारिजात भाष्य लिखकर वैष्णव भक्ति का अपना नया दर्शन'द्वैताद्वैत' या 'भेदाभेद' प्रारंभ किया। उन्होंने राधा कृष्ण की भक्ति का उपदेश दिया तथा श्रीकृष्ण को परब्रह्म तथा राधा को उनकी शक्ति बताया। इस सम्प्रदाय में राधा को श्रीकृष्ण की परिणीता माना जाता है और युगल स्वरूप की मधुर सेवा की जाती है। निम्बार्क सम्प्रदाय की प्रधान पीठ सलेमाबाद (अजमेर) में है।
माधवाचार्य
स्वामी मध्वाचार्य का जन्म सन् 1199 में कन्नड़ जिले के उडिपि नगर में हुआ। इनके द्वारा प्रवर्तित यह वैष्णव भक्ति मत गौड़ स्वामी द्वारा अधिक प्रचारित किये जाने के कारण गौड़ीय सम्प्रदाय कहलाया। मध्वाचार्य ने 'पूर्णप्रज्ञ भाष्य' की रचना कर 'द्वैतवाद' नामक दर्शन प्रतिपादित किया।
उनके अनुसार ईश्वर सगुण है तथा वह विष्णु है। उसका स्वरूप सत्, चित् तथा आनन्द (सच्चिदानन्द) है। इस सम्प्रदाय को नया रूप देकर जन-जन तक फैलाने का कार्य बंगाल के गौरांग महाप्रभु चैतन्य ने किया। उन्होंने रासलीलाओं एवं संकीर्तनों को कृष्ण भक्ति का माध्यम बनाया तथा वृन्दावन में कृष्ण भक्ति की अजस्त्र धारा प्रवाहित की।
रामानंद
रामानुज की शिष्य परम्परा में उत्तर भारत में वैष्णव आन्दोलन की कमान गुरु रामानन्द के हाथों में सम्प्रदाय थी। उनके द्वारा उत्तरी भारत में प्रवर्तित मत 'रामानन्दी सम्प्रदाय' कहलाया जिसमें ज्ञानमार्गी राम भक्ति की प्रधानता थी। रामानन्द ने समाज में व्याप्त भेदभाव, ऊँच नीच आदि को समाप्त कर समाज के सभी तत्वों को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया। कबीर, धन्नाजी, पीपाजी, सेनानाई, सदनाजी, रैदास आदि इनके प्रमुख शिष्य हुए रामानन्द की भक्ति दास्य भाव की थी मध्यकाल में भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में इन्होंने ही राम की भक्ति को प्रचारित कर जनसाधारण का धर्म बनाने का श्रीगणेश किया। इनका जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। ये पहले संत थे जिन्होंने अपने उपदेश संस्कृत के स्थान पर हिन्दी में दिये।
कबीर
रामानंद के शिष्य कबीर निर्गुण भक्ति धारा के प्रथम संत थे, जिन्होंने जात-पात, मृर्ति-पूजा व बाह्य आंडबरों का पुरजोर विरोध किया। कबीर दिल्ली सल्तनत के लोदी सुल्तान सिकंदर लोदी के समकालीन थे। कबीर की शिक्षाएँ 'बीजक' में संग्रहीत हैं। कबीर ने शारीरिक शुद्धता की अपेक्षा आत्मा की शुद्धता पर बल दिया कबीर की मृत्यु मगहर में हुई।
गुरु वाल्लभाचार्य
इनका जन्म वाराणसी में हुआ। ये शुद्धादैत दर्शन में विश्वास करते थे। इन्होंने पुष्टिमार्ग सिद्धान्त का प्रचलन कर वल्लभ संप्रदाय की स्थापना की। वल्लभाचार्य ने 'अणुभाष्य' लिखकर 'शुद्धाद्वैत' दर्शन का प्रतिपादन किया इन्होंने वृंदावन में ' श्रीनाथ मंदिर की स्थापना की। ये भगवान कृष्ण की पूजा श्रीनाथ नाम से किया करते थे।
इन्हें विजयनगर के राजा कृष्णदेव ने संरक्षण दिया था। इसके प्रमुख धार्मिक ग्रंथ 'सुबोधनी' व 'सिद्धांत रहस्य' है। इस सम्प्रदाय में भक्ति को रस के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। वष्ट्भाचार्य के पुत्र व उत्तराधिकारी विट्ठलनाथ ने 'अष्ट छाप कवि मंडली' का संगठन किया जिन्होंने राधाकृष्ण की भक्ति में अनन्य काव्यमयी रचनाएँ की। इन्होंने 'बावन वैष्णवों की वार्ता' नामक पुस्तक लिखी।
चैतन्य
इनका वास्तविक नाम विश्वम्भर था। इनका जन्म नडिया (बंगाल) में हुआ। चैतन्य को बंगाल में वैष्णव धर्म का संस्थापक माना जाता है। चैतन्य को उड़ीसा नरेश प्रताप रूद्र गजपति का संरक्षण प्राप्त था। चैतन्य मूर्तिपूजक थे। चैतन्य ने महागौडीय सम्प्रदाय या अचिन्त्य भेदाभेद संप्रदाय की स्थापना की। इन्होंने भक्ति में कीर्तन को मुख्य स्थान दिया। चैतन्य को गौरांगमहाप्रभु के नाम से भी जाना जाता है। चैतन्य ने एक वैष्णव संत ईश्वरपुरी से दीक्षा प्राप्त की।
महाराष्ट्र धर्म_ड महाराष्ट्र के वैष्णव आंदोलन पर भागवत पुराण का जबरदस्त प्रभाव था। महाराष्ट्र में पण्ढरपुर के प्रमुख देवता विठोवा या विट्ठल का मंदिर उपासना का प्रमुख केन्द्र था। महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन दो संप्रदायों बारकरी व धरकरी में विभक्त था संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र में रहस्यवादी आंदोलन के स्रोत थे।
गुरु दादू (1544-1603)-
इनका जन्म 1544 में अहमदाबाद में हुआ। दादू ने राजस्थान के नरैणा स्थान को अपना प्रमुख स्थान बनाया। इन्होंने एक असाम्प्रदायिक मार्ग (निपख संप्रदाय) का उपदेश दिया। दादू की प्रमुख शिक्षा थी- 'विनयशील बने रहो तथा अहम् से मुक्त रहो।'
गुरु रविदास या रैदास
रामानंद के प्रसिद्ध शिष्य थे। इन्होंने रामदासी सम्प्रदाय की स्थापना की। इन्होंने समाज में व्याप्त आडम्बरों एवं भेदभावों का विरोध कर निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का उपदेश दिया इनके उपदेश रैदास की परची' ग्रंथ में हैं।
मीरा (1498-1546)-
मीरा मेड़ता (कुड़की) के राठौड़ राव दूदा के पुत्र राव रत्नसिंह की पुत्री थी। इनका जन्म नाम पेमल था। इनका विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। मीरां ने कृष्ण भक्ति हेतु जीवन समर्पित कर दिया। वे चित्तौड़ छोड़ वृंदावन चली गयी। मीरां ने अपना शेष जीवन द्वारका में व्यतीत किया। मीरा ने सगुण भक्ति । का सरल मार्ग भजन, नृत्य व कृष्ण स्मरण को बताया।
संत धन्नाजी
संत रामानन्द के शिष्य संत धन्ना जी टोंक के निकट धुवन ग्राम में संवत् 1472 में एक जाट परिवार में पैदा हुए। बचपन से ही ईश्वर भक्ति में लीन रहते थे। ये संत रामानन्द से दीक्षा लेकर धर्मोपदेश एवं भगवत् भक्ति का प्रचार करने लगे। संग्रह वृत्ति से मुक्त रहते हुए संतों की सेवा, ईश्वर में दृढ़ विश्वास तथा बाहरी आडम्बरों व कर्मकाण्डों का विरोध आदि इनके प्रमुख उपदेश हैं।
तुलसीदास
तुलसीदास संत नरहरिदास के शिष्य थे। इन्होंने सगुण भक्ति का प्रचार कर राम भक्ति का प्रचार किया व रामचरितमानस की रचना की जो की अवधि भाषा में लिखी गई। गीतावली, कवितावली व विनयपत्रिका इनकी अन्य रचनाएँ हैं।
सूरदास
सूरदास जी अकबर व जहाँगीर के समकालीन थे। इन्होंने वल्लभाचार्य से दीक्षा प्राप्त कर अष्टछाप कवियों में अपना स्थान बनाया। इन्होंने सगुण भक्ति के माध्यम से कृष्ण व राधा की भक्ति की। इन्होंने ब्रजभाषा में तीन ग्रंथों सूरसागर, साहित्य लहरी व सूरसारावली की रचना की।
मलूक दास
संत मलूक दास का जन्म 1474 ई. में इलाहाबाद के कड़ा नामक स्थान पर हुआ। वे जाति से खत्री थे और कम्बल बेचने का कार्य करते थे। उन्होंने अपना सारा जीवन भ्रमण तथा सत्संग में बिताया वे मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे और हिन्दू-मुस्लिम समन्वय के समर्थक थे।
संत ज्ञानेश्वर (1275-1296)-
संत ज्ञानेश्वर को देवगिरी के शासक का संरक्षण प्राप्त था। इन्होंने मराठी भाषा में भागवतगीता पर 'ज्ञानेश्वरी" नामक टीका लिखी। अमृतानुभव' तथा 'चंगदेव प्रशस्ति' इनकी अन्य रचनाएँ हैं।
तुकाराम
इन्होंने पंढरपुर स्थित विठोबा मंदिर को भक्ति का प्रमुख केन्द्र बनाया। जन्म से वे शुद्र थे व शिवाजी की भेंट को लेने से उन्होंने मना कर दिया था।
नामदेव
ये भी पंढरपुर के विठोबा के भक्त थे। इनका जन्म एक दर्जी परिवार में हुआ। इन्होंने कुछ मराठी गीतों की रचना की जो अंभगों के रूप में प्रसिद्ध है। इनके पद्य गुरु-ग्रंथ साहिब में भी संकलित है।
एकनाथ- इनका जन्म पैठव (औरंगाबाद) में हुआ। इन्होंने भागवतगीता के चार श्लोकों पर टीका लिखी।
रामदास (1608-1681) - ये शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे। इनकी प्रमुख रचना 'दासबोध' है।
नरसी मेहता- ये पन्द्रहवीं शताब्दी के गुजरात के प्रमुख संत थे। ये गाँधीजी के प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तेने कहिए' के रचयिता थे।
शंकरदेव (1499-1568)- असम के प्रमुख संत जिन्होंने एक शरण संप्रदाय की स्थापना की।
सिक्ख धर्म
गुरुनानक (1469-1538)-
गुरुनानक सिक्ख धर्म के संस्थापक थे। कबीर के समकालीन गुरुनानक का जन्म 1469 ई. में तलवंडी (पाकिस्तान) में हुआ। नानक ने गृहस्थ जीवन अपनाते हुए सामाजिक कुरीतियों की कटु आलोचना की। नानक ने कबीर की भाँति हिन्दू मुस्लिम समन्वय स्थापित करने की कोशिश की। नानक ने तीस वर्षों की अवधि में देश का पाँच बार भ्रमण किया जिसे 'उदासीन' के नाम से जाना जाता है। नानक मानवतावाद व नारी उद्वार के समर्थक थे। गुरुनानक के पश्चात् सिक्ख धर्म में 9 गुरु हुए हैं, जो निम्न हैं
गुरु अंगद (1538-1552)- गुरुमुखी लिपि की शुरुआत की।
गुरु अमरदास (1552-1552)-
22 गद्दीयाँ बनवा सिक्ख धर्म को संगठित किया। सती प्रथा व पर्दा प्रथा का विरोध किया। सिक्ख व हिन्दुओं के विवाह पृथक करने हेतु 'लवन पद्धति' की शुरुआत की।
गुरु रामदास (1574-81)- 1577 ई. में अकबर द्वारा प्रदत्त जमीन पर 'अमृतसर' नगर की स्थापना की।
गुरु अर्जुनदेव (1581-1606) -
इन्होंने 1604 में आदि-ग्रंथ (गुरु ग्रंथ साहब) का संकलन करवाया। स्वर्ण-मंदिर की स्थापना अमृतसर में करवायी।
गुरु हरगोविन्द (1606-1645)-
इन्होंने अकाल तख्त' की स्थापना की व सिक्खों की धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सैनिक शिक्षा भी दी।
गुरु हरराय (1645-1661)
गुरु हरिकिशन (1661-1664)
गुरु तेगबहादुर (1664-1675)- औरंगजेब द्वारा जबरन इस्लाम स्वीकार करने हेतु मजबूर करने पर वे शहीद हो गये।
गुरु गोविन्द सिंह (1666-1708) - इन्होंने 13 अप्रैल, 1699 को 'खालसा पंथ,की स्थापना की। ये सिक्खों के 10वें व अंतिम गुरु थे।
भक्ति आंदोलन का प्रभाव व भारतीय संस्कृति को देन
भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज और संस्कृति को एक नई दिशा प्रदान को। इस आंदोलन ने जहाँ एक ओर मानवतावाद की विचारधारा को विकसित किया वहीं दूसरी ओर व्यक्तिवादी विचारधारा को सशक्त बनाया। इसने मानव का सीधा सम्पर्क परम् पिता परमेश्वर से स्थापित कर उसमें संयम, सदाचार, भक्ति और प्रेम जाग्रत किया। इस आंदोलन के समर्थकों ने समाज में जाति पांति, वर्ग-भेद समाप्त कर सामाजिक समानता की स्थापना कर संस्कृति के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भक्ति आंदोलन ने भारतीय संस्कृति को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में समान रूप से प्रभावित किया।
धार्मिक क्षेत्र में प्रभाव-
भक्ति आंदोलन ने इस्लाम धर्म के एकेश्वरवाद को स्वीकार कर बहुदेववाद का खंडन किया। केवल एक ही ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया। इस प्रकार हिन्दू तथा मुस्लिम धर्म में निकटता आ सकी जिसके कारण हिन्दु-मुसलमान द्वेष किसी सीमा तक बंद-सा हो गया। धार्मिक दृष्टि से इस आंदोलन ने भक्ति पर बल दिया। धर्म में व्यर्थ के आंडम्बर का और ईश्वर प्राप्ति के लिए सीधा सरल भक्ति का मार्ग अपनाया और अनेक नए-नए समुदायों को प्रोत्साहन दिया, जैसे- सिक्ख सम्प्रदाय, कबीर पंथ व दादू पंथ इत्यादि।
सामाजिक क्षेत्र में प्रभाव-
भक्ति ने समाज में जाति-प्रथा की जटिलताओं को समाप्त कर निम्न वर्ग के लोगों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। हिन्दू समाज में फैली विभिन्न रूढ़ियों, मद्यपान, पशुबलि आदि को समाप्त कराया। भक्ति आंदोलन ने हिन्दू व मुस्लिम धर्म में समन्वय स्थापित करवाया।
साहित्य के क्षेत्र में-
अनेक संतों ने अपनी रचनाओं के द्वारा हिन्दी साहित्य तथा अन्य प्रांतीय भाषाओं को विकसित किया । गुरुनानक ने गुरुमुखी का विकास किया। तुलसीदास ने अवधी व सूरदास ने ब्रजभाषा के माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में जनभाषा को प्रोत्साहित किया। महाराष्ट्र में नामदेव, तुकाराम व ज्ञानदेव आदि संतों ने मराठी भाषा में अपना योगदान दिया। राजस्थानी भाषा को विकसित करने में मीराबाई व बंगाली भाषा को विकसित करने में चैतन्य का महत्वपूर्ण योगदान है।
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