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Uttar Vedic Kal in Hindi -  उत्तर वैदिक काल ( 1000 से 600 ई. पूर्व)

Uttar Vedic Kal in Hindi - उत्तर वैदिक काल ( 1000 से 600 ई. पूर्व)

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Uttar Vedic Kal (उत्तर वैदिक काल) - जिस काल में बाकी तीनों वेद व अन्य वैदिक साहित्य लिखा गया उसे उत्तर वैदिक काल कहते है अर्थात इस काल में सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषदों की रचना हुई। 1000 B.C.- 600 B.C तक उत्तर वैदिक काल का समय माना जाता है।

Uttar Vedic Kal in Hindi -  उत्तर वैदिक काल ( 1000 से 600 ई. पूर्व)

Uttar Vedic Kal in Hindi
Uttar Vedic Kal in Hindi


उत्तर वैदिक काल में आर्यों की संस्कृति का केन्द्र गंगा-यमुना- दोआब क्षेत्र हो गया, जिसे 'मध्य देश (उत्तर प्रदेश) कहा जाता था 
उत्तर वैदिक काल में कुछ कबीला का आपस में विलय हो गया पुरू और भरत कबीले मिलकर 'कुरू' कहलाए तथा क्रिवि और तुर्वस कबीले मिलकर 'पांचाल' कहलाए।

ध्यातव्य रहे-'भारत के प्राचीन नगरों का पतन' (Urban Decay in India : 300 AD-1000 AD) नामक प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक रामशरण शर्मा हैं।

उत्तर वैदिक काल में राजनैतिक व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में ऋग्वैदिक काल के छोटे-छोटे जन मिलकर जनपद बने और इस काल में ही सर्वप्रथम 'राष्ट्र' शब्द प्रचलन में आया। सौ गावों के समूह के अधिकारी को 'शतपति' कहा जाता था। उत्तर वैदिक काल में शासन का आधार 'राजतन्त्र' था। सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में राजा की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। 

 पाँचाल एक कबीले का नाम था, परन्तु बाद में प्रदेश का नाम हो गया। उत्तर वैदिक काल में राजा के ऊपर सभा और समिति का नियन्त्रण समाप्त हो गया अर्थात् राजा के अधिकारों में वृद्धि हुई। अब शासक कबीले का मुखिया न होकर जन का राजा हो गया तथा अपने पद को वंशानुगत बना दिया व नियमित कर व्यवस्था स्थापित की। राजा को आय का 16वॉ भाग 'कर' (Tax) के रूप में दिया जाता था राजा, राजाधिराज, विराट, सम्राट, एकराट जैसी उपाधि धारण करता था

ध्यातव्य रहे-उत्तर वैदिक काल में विदथ पूर्ण रूप से समाप्त हो गयी एवं सभा में महिलाओं का हिस्सा लेना बन्द कर दिया गया

परिवार का मुखिया गृहपति और गण का मुखिया गणपति कहलाता था। उत्तर वैदिक काल में इन्द्र के स्थान पर प्रजापति सर्वाधिक प्रिय देवता हो गए थे 

उत्तर वैदिक काल में राजाओं को अलग-अलग दिशाओं में नामों से जाना जाता था, जो निम्न है :-


 दिशा

राज्य का नाम

उपाधि

यज्ञ

पूर्व

साम्राज्य  

सम्राट 

वाजपेय यज्ञ

पश्चिम

स्वराज्य 

स्वराट

अश्वमेध यज्ञ

उत्तर 

वैराज्य

विराट 

पुरुषमेध यज्ञ

दक्षिण

भोज्य

भोज(सर्वराट)

सर्वमेध यज्ञ

मध्यदेश

राज्य 

राजा

राजसूय यज्ञ


ध्यातव्य रहे - चारों दिशाओं को जीतने वाला राजा 'एकराट' की उपाधि धारण करता था। उत्तरवैदिक काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में पांचाल को वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है।
उत्तरवैदिक काल में सर्वप्रथम राज्याभिषेक की परम्परा आरंभ हुई । राज्याभिषेक का अनुष्ठान राजसूय यज्ञ के नाम प्रसिद्ध था। राजा अपने राज्याभिषेक के बाद राज्य के 12 उच्चाधिकारियों (रत्नियों) का समर्थन लेता था, इन्हें 'रत्नि' कहते थे। 
ये महत्त्वपूर्ण विभागों का प्रतिनिधित्व कर राजा को सलाह देने का कार्य करते थे। हालांकि इनकी सलाह को शासक द्वारा मानना अनिवार्य नहीं था परंतु अपने विभागों में पूर्ण रूप से स्वायत्ता प्राप्त थी।

राजाओं द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले यज्ञ

(i) राजसूय यज्ञ-यह राज्याभिषेक के अवसर पर किया जाता था। इस यज्ञ के बाद यह समझा जाता था कि राजा को देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त हो गया है। इस यज्ञ के दौरान राजा 12 रत्नियों के घर जाता था।
(ii) वाजपेय यज्ञ-इस यज्ञ के दौरान रथदौड़ का आयोजन किया जाता था।
(iii) अश्वमेध यज्ञ-अश्वमेध यज्ञ राज्य विस्तार हेतु किया जाता था। यह सभी यज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण था। यह शक्ति का द्योतक था।
(iv) अग्निष्टोम यज्ञ-इस यज्ञ के दौरान अग्नि के समक्ष पशु बलि दी जाती थी तथा सोमरस का पान किया जाता था, इसके बाद इसे जीवन एवं यौवन वृद्धि के लिए किया जाने लगा।
(v) हिरण्यगर्भ-राजा को क्षत्रिय घोषित करने के लिए चाहे वह जन्म से क्षत्रिय न हो।

अथर्ववेद में परीक्षित को मृत्युलोक का देवता बताया गया है। ये अर्जुन का पौत्र था, इसकी मृत्यु तक्षक नाग के काटने से हुई क्योंकि उसे श्राप था, कि उसकी मौत सर्प के काटने से होगी। परीक्षित की मृत्यु के बाद उसके पुत्र जनमेजय ने नाग यज्ञ कर सम्पूर्ण नाग जाति को नष्ट करने का प्रण लिया, लेकिन देवताओं के समझाने पर इस यज्ञ को रोक दिया गया। माना जाता है कि यह यज्ञ राजस्थान के भीलवाड़ा में आयोजित किया गया था।

उत्तर वैदिक काल में सामाजिक व्यवस्था

उत्तरवैदिक काल में परिवार पैतृक एवं संयुक्त होते थे। भारतीय समाज में बड़े-बुजुर्गों को परिवार का मुखिया कहा जाता है। प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी, लेकिन उत्तर वैदिक काल में धीरे धीरे यह जन्म आधारित हो गई। इस काल में ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई तथा यज्ञ अनुष्ठान का महत्त्व बढ़ा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को 'द्विज' कहा जाने लगा। उत्तरवैदिक काल में गौत्र प्रथा अस्तित्व में आई, जिसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।

उत्तर वैदिक काल में समाज 4 वर्गों में विभक्त था- (i) ब्राह्मण, (ii) क्षत्रिय, (ii) वैश्य, (iv) शूद्र

इसी काल में एक गौत्र में विवाह न करने की प्रथा आरंभ हुई। उत्तर वैदिक काल में शूद्रों का उपनयन संस्कार प्रतिबंधित कर दिया गया तथा शूद्रों को अस्पृश्य मानने की प्रवृत्ति इसी युग में शुरू हुईं।

ध्यातव्य रहे-वर्तमान ब्राह्मणवाद का रूप स्मृति काल (200 ई.पू. से 200 ई.) अर्थात् ईसा युग की आरम्भिक शताब्दियों में ही स्पष्ट होता है।

पुरुषार्थ -

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को मिलाकर पुरुषाच कहा गया है। मनुस्मृति में केवल प्रथम तीन पुरुषार्थों का ही उल्लेख मिलता है, जिन्हें 'त्रि-वर्ग' कहा गया है।

आश्रम व्यवस्था-

ऋग्वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था नहीं थी इसका प्रादुर्भाव उत्तरवैदिक काल में शुरू हुआ। आश्रम प्रणाली के सर्वप्रथम उल्लेख हमें 'ऐतरेय ब्राह्मण' में मिलता है। उत्तरवैदिक काल में सर्वप्रथम छान्दोग्य उपनिषद में तीन आश्रमों की जानकारी मिलती है, जबकि 'सर्वप्रथम जाबालोपनिषद' में चार आश्रमों का उल्लेख मिलता है।

ब्रह्मचर्य आश्रम (उपनयन/जन्म से से 25 वर्ष तक) - 

ब्राह्मण] बच्चे के लिए 8 वर्ष की आयु में बसंत ऋतु, क्षत्रिय वर्ण में 11 व की आयु में ग्रीष्म ऋतु, वैश्य वर्ण में बच्चे के लिए 12 वर्ष की आयु में शीत ऋतु में उपनयन संस्कार किया जाता था। ब्रह्मचर्य जन्म से 25 वर्ष की आयु तक माना जाता है, जिसमें बालक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करता है। उस समय वह वेदों के अध्ययन कर सामाजिक नियमों, राजव्यवस्था के बारे में जानकर गृहस्थाश्रम के लिए तैयार होता था। इस संस्कार के बाद बालक द्विज (दुबारा जन्म लिया हुआ) माना जाता है।

गृहस्थाश्रम (26 से 50 वर्ष)-

गृहस्थ आश्रम में रहते हुए 'त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, कर्म) कार्य सम्पन्न किया जाता है। गृहस्थ को पालक व गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ आश्रम माना गया है। गृहस्थ के लिए तीन ऋणों से ऊऋण होने के लिए बताया गया है, जिन्हें तीन भागों में बांटा गया है-ऋषि ऋण, पितृ ऋण, देव ऋण। प्रत्येक गृहस्थ के लिए पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान करना अनिवार्य था, जो ब्रह्म यज्ञ, पित यज्ञ, देवयज्ञ, भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ थे।

वानप्रस्थाश्रम (51 से 75 वर्ष ) - 

व्यक्ति 51 से 75 वर्ष की आयु वन/जंगल में बिताता था। वानप्रस्थी अपने परिवार का सदस्य न रहकर सम्पूर्ण समाज का सदस्य बन जाता है। इसमें सह पत्नी = बिना पत्नी प्रवेश किया जा सकता है। अपने कार्यों द्वारा समाज क कल्याण करने का प्रयत्न कर व्यक्ति सत्य की खोज तथा आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति में सतत् प्रयत्नशील रहता है।

संन्यास आश्रम (76 से मृत्यु तक)-

अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए किया जाने वाला अंतिम आश्रम जो मृत्युपर्यन्त तक चलत था। ब्राह्मण ही यह आश्रम अपना पाता था।

गृहस्थ आर्यों के द्वारा किये जाने वाले महायज्ञ


(i) ब्रह्म यज्ञ/ऋषि यज्ञ-इस यज्ञ के द्वारा प्राचीन ऋषि-मुनियों प्रति कृतज्ञता जाहिर की जाती थी।
(ii) पितृ यज्ञ-इस यज्ञ में पित्रों को तर्पण किया जाता है।
(iii) देव यज्ञ-देवताओं की पूजा अर्चना हवन द्वारा की जाती है 
(iv) भूतयज्ञ-समस्त जीवों के प्रति कृतज्ञता, दान एवं भोजन दिया जाता था।
(v) मनुष्य यज्ञ/नृयज्ञ-अतिथि का सत्कार।

अन्य यज्ञ

(i) सौत्रामणि यज्ञ-इस यज्ञ में इन्द्र की पूजा की जाती है। इसमें पशु व सुरा की आहूति दी जाती थी सौत्रामणि शब्द की उत्पत्ति सूत्रामण से हुई जिसका शाब्दिक अर्थ होता है-अच्छा रक्षक यह इन्द्र की उपाधि भी है।
(ii) पुरुषमेघ यज्ञ-इस यज्ञ में पुरुष की बलि दी जाती थी। यह ब्राह्मण व क्षत्रिय द्वारा ही किया जाता था। यह 5 दिनों तक चलता था। 
(iii) अग्निहोत्री यज्ञ-यह यज्ञ प्रातः-सायंकाल में किया जाता था। यह अग्नि देवता की उपासना में किया जाता था।
(iv) पञ्चपशु यज्ञ-इस यज्ञ में 5 पशुओं की बलि दी जाती थी, यथा-भेड़, बकरा, घोड़ा, बैल।

ध्यातव्य रहे-ऋग्वैदिक काल में यज्ञ का धार्मिक कर्मकाण्डों में महत्त्वपूर्ण स्थान था, लेकिन मूर्तिपूजा एवं मंदिरों का प्रमाण नहीं मिला है। उत्तरवैदिक काल में यज्ञ विधान अधिक जटिल हो गये।

गौत्र का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। यहाँ गौत्र एक वंश, कुल या जाति के रूप में है। इसके बाद गौत्र बर्हिविवाह की प्रथा चल पड़ी। ऐतरेय ब्राह्मण में सर्वप्रथम चारों वर्णों के कर्त्तव्यों उल्लेख किया गया है।

उत्तर वैदिक काल में 'स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई। उनका पैतृक सम्पत्ति में अधिकार खत्म हो गया। सभा व समितियों में प्रवेश वर्जित किया गया तथा महिलाओं का उपनयन संस्कार बन्द कर दिया गया। इस काल में कुछ महिला विदुषियों का वर्णन मिलता है। यथा-गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी, वेदवती, सुमला, काशकृतसनी, गृहिता। हालांकि उत्तर वैदिक काल में ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को कृपण (समस्त दु:खों का मूल) कहा गया है।

मैत्रायणी संहिता में सुरा (शराब), पासा ( जुआ) व स्त्री' को संसार की बड़ी बुराईयों में गिना गया है। अथर्ववेद में लड़कियों के लिए ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य था । साथ ही सती प्रथा का उल्लेख प्रतिकात्मक रूप में किया गया है।

खेलकूद व मनोरंजन हेतु समय-समय पर जन समूह एकत्रित होते थे। ये उत्सव समज्या कहलाते थे। उत्तर वैदिककालीन लोग अंतरंग एवं बहिरंग खिलौनेरत रहते थे, जिसमें पासा खेलना, रथदौड़ आदि प्रमुख थे।

वैदिक कालीन आर्थिक व्यवस्था

उत्तरवैदिक काल में आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि एवं पशुपालन था। इस काल की प्रमुख फसल जौ व धान थी, लेकिन उत्तरवैदिक ग्रन्थों में उड़द (भाष), वृहि (चावल), मृदग (मूंग), मसूर, ईक्ष (गन्ना), कपास, तिल आदि फसलों का उल्लेख मिलता है। 

कृषि की चारों क्रियाओं जुताई, बुआई, कटाई तथा मढ़ाई का उल्लेख मिलता है। इस काल में तांबे के अलावा लोहे का व्यापक प्रयोग शुरू हुआ, जिससे कृषि उत्पादन में वृद्धि संभव हो सकी तथा साल में अनेक फसल उगाने के प्रमाण मिलते हैं। पशु ही चल सम्पत्ति का मुख्य आधार था, इसलिए वे पशुधन की वृद्धि की कामना करते थे। कर व्यवस्था स्थायी हो गई तथा भू-राजस्व के रूप में भाग कर लिया जाने लगा तथा ऋग्वैदिक कालीन बलि कर स्थायी कर दिया गया।

अथर्ववेद के अनुसार सर्वप्रथम पृथुवैन्य ने हल और कृषि को जन्म दिया। पृथुवैन्य को कृषि का पहला अनुसंधानकर्ता माना जाता है। शतपथ ब्राह्मण में महाजनी प्रथा का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। सूदखोर को कुसीदिन कहा गया है।

वैदिक कालीन साहित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण साहित्यिक स्त्रोत संस्कृत साहित्य है। वेद-वेद शब्द 'विद्' धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ-'जानना' या 'ज्ञान' होता है। वेदों का वर्गीकरण एवं संकलन महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास' ने किया । 

वेदों को संहिता, श्रुति (मौखिक उच्चारण करने के कारण), नित्य (शाश्वत), ऋचाएँ, अपौरुषेय (मनुष्य द्वारा रचित नहीं) साहित्य नामों से भी जाना जाता है। इनकी संख्या चार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद (तीनों को सम्मिलित रूप से वेदत्रयी कहते हैं) व अथर्ववेद हैं।

ध्यातव्य रहे-मैक्समूलर को वेद पंडित कहा जाता है

ऋग्वेद-

ऋग्वेद का प्रमुख देवता (Divinity) अग्नि है यह भारत का उपलब्ध प्राचीनतम साहित्य है। ऋग्वेद मानव जाति का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है, इसी कारण यह सबसे प्राचीन वेद है, जिससे पूर्व वैदिक काल सभ्यता का ज्ञान होता है। 

ऋग्वेद का शाब्दिक अर्थ ऋक् + वेद। ऋक् का शाब्दिक अर्थ होता 'छन्दोबद्ध (छन्दों व चरणों से युक्त मंत्र) रचना' या 'श्लोक' है। इसमें देवताओं की स्तुति की गई है। ऋग्वेद को रुद्र नामक शब्द का आरम्भिक स्त्रोत माना गया है। इसका दूसरा नाम 'विज्ञान वेद' भी है। जिसकी रचना पंजाब में 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। भूर्ज वृक्ष की छाल पर लिखी ऋग्वेद की पाण्डुलिपि कश्मीर में पाई गई। यह पाण्डुलिपि पूणे, महाराष्ट्र के एक पुस्तकालय में सुरक्षित है।

ऋग्वेद की भाषा 'प्राक्' या 'प्राकृत' है। इसमें 10 मण्डल, 1028 सूक्त एवं 10458 मंत्र/ ऋचाएँ हैं। इसके आठवें मण्डल में हस्तलिखित कुछ सूक्त बाद में जोड़े गए हैं जिन्हें 'बालखिल्य' कहा जाता है, जिनकी संख्या 11 मानी गई है। ऋग्वेद में वाकल शाखा में 56 सूक्त होते थे, जो वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। 
ऋग्वेद का पहला मण्डल अंगिरा ऋषि को समर्पित है, तो आठवाँ मण्डल कण्व ऋषि को समर्पित है।

ऋग्वेद के मण्डल एवं उसके रचयिता

मण्डल

रचयिता

मण्डल

रचयिता

प्रथम

अनेक ऋषि

द्वितीय

गृत्समद

तृतीय

विश्वामित्र

चतुर्थ

वामदेव

पंचम

अत्रि

षष्ठम्

भारद्वाज

सप्तम

वसिष्ठ

अष्ठम

कण्व अंगिरा

नवम

अनेक ऋषि

दशम

अनेक ऋषि



त्रज्ञ्ग्वेद  में 2 से 9वाँ मण्डल प्राचीन माना जाता है तथा ऋग्वेद का पहला व 10वाँ मण्डल सबसे अन्त में जोड़ा गया। इसमें दो छन्दों में अपर, पूर्ण, सरस्वत व शर्यणावत, चार समुद्रों का उल्लेख मिलता है तथा इन्द्र को सर्वप्रमुख देवता माना गया है। ऋग्वेद के द्वितीय से सप्तम मण्डलों को वंश मण्डल कहा जाता है।

ऋग्वेद की कुल पाँच शाखाएँ शाकल, वाकल, आश्वलायन, शाखायन तथा मांडुक्य थीं, जिनमें से वर्तमान में शाकल संहिता ही उपलब्ध है। शाकल पाठ में कुल 1017 सूक्त हैं।

ध्यातव्य रहे-पाणिनि अपनी अष्टाध्यायी में ऋग्वेद की 21 शाखाएँ बतलायी हैं। आप स्तम्भ बोधायन, कात्यायन, पाणिनी, पिंगल, याज्ञवल्क्य सभी व्याकरणाचार्य थे।

इसके मन्त्रों का पाठन करने वाला पुरोहित होत/होता कहलाता था। इसमें ब्रह्मा का उल्लेख नहीं मिलता है लेकिन सर्वप्रथम लक्ष्मी का उल्लेख प्राप्त होता है और साथ ही मुंडक सूक्त में सोमरस निकालने की प्रक्रिया वर्णित है।

गायत्री मंत्र-

इसका सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इस मंत्र में 24 अक्षर हैं। उनमें आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। गायत्री मंत्र को वेदों का सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। यह मंत्र सवित देवता एवं सावित्री देवी को सम्बोधित करता है। विश्वामित्र द्वारा रचित तृतीय मण्डल में सूर्य देवता-सविता को समर्पित प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है। गायत्री को 'वेद माता' कहा गया है। 
वर्तमान में अथर्ववेद का एकमात्र यहीं गौपथ ब्राह्मण ग्रन्थ मिलता है, जिसमें ॐ, गायत्री मंत्र का उल्लेख है। सैद्धांतिक रूप से चारों वेदों में ही गायत्री मंत्र का उल्लेख किया गया है। जैसे-ऋग्वेद में 'ॐ भूर्भव स्वः ', यजुर्वेद में तत्सवितुर्वरेण्यं', सामवेद में भर्गोदेवस्य धीमहि', ई अथर्ववेद में 'धियो योनः प्रचोदयात्' उल्लिखित है।

ध्यातव्य रहे-ऋग्वेद के तीसरे मण्डल में गायत्री मन्त्र का उल्लेख है। ऋग्वेद में निहित गायत्री मंत्र सविता को समर्पित है। बालखिल्य शाखा के 11 सूक्त 8वें मण्डल का परिशिष्ट माना जाता है। 9वाँ मण्डल सोम को समर्पित है। दसवें मण्डल में पुरुष सूक्त मिलता है जिसमें चारों वर्णों की उत्पत्ति बताई गई हैं। पुरुष सुक्त को वैदिक काल का राष्ट्रीय गीत माना जाता है। असतो मा सद्गमय का ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। हाल ही में यूनेस्को द्वारा ऋग्वेद की 30 पाण्डुलिपियों को विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है। 

सामवेद-

साम का शाब्दिक अर्थ होता है-'सामूहिक गान' सामवेद भारतीय संगीत शास्त्र पर लिखी गई प्राचीनतम ग्रन्थ है। जिसमें आर्यों द्वारा गायी जाने वाली प्रार्थनाएँ स्तुति हैं, इसी कारण इसे भारतीय संगीत का जनक (मूल) माना जाता है। इसे मंत्रों का वेद व संगीत वेद के नाम से भी जाना जाता है। सामवेद का ऐतिहासिक महत्व सबसे कम है इसमें कुल 1880 मन्त्र' है।

ध्यातव्य रहे-सामवेद में मौलिक सूक्तों की संख्या 75 है। बाकी समस्त मन्त्र ऋग्वेद से लिये गये हैं इसलिए सामवेद को ऋग्वेद का अभिन्न अंग माना जाता है। सामवेद में सरस्वती नदी के उद्गम व लुप्त हो जाने का भी उल्लेख मिलता है।

सामवेद में सर्वप्रथम सात स्वरों का उल्लेख मिलता है। (सा, रे, .गा,मा .........  )इसलिए इसे भारतीय शास्त्रीय संगीत का जनक भी कहते हैं। इसके प्रथम दृष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनी को माना जाता है और पुरोहित को उद्गाता कहा गया है जबकि ऋग्वेद का ब्राह्मण पंचविश (तोड्य) व जैमिनी थे। इस वेद में मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र एवं ताण्ड्य ब्राह्मण में सरस्वती नदी के प्रकट व विलुप्त होने का विवरण मिलता है।

यजुर्वेद-

यजुः (यज्ञ) + वेद यजुर्वेद एक कर्म काण्डीय वेद है, जिसमें यज्ञ से सम्बन्धित विधि-विधानों' का वर्णन है जिसकी रचना 'कुरूक्षेत्र' में की गई है। यह एकमात्र वेद जो 'गद्य-पद्य शैली' में लिखा गया है इसी कारण इसे 'चम्पू शैली' भी कहते हैं। इसी आधार पर इसे चम्पू काव्य भी कहा जाता है।
यजुर्वेद का ऋषि ( पुरोहित ) अध्वर्यु है (अध्वर्यु यज्ञ का पर्यायवाची है।) इसी कारण यजुर्वेद को अध्वर्यु वेद भी कहते हैं तथा इसमें कुल मन्त्रों की संख्या 1990 है। पतंजलि के अनुसार यजुर्वेद की 101 शाखाएँ थीं किन्तु वर्तमान में इसकी पाँच शाखाएँ काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय और वाजसनेयी प्रचलित हैं।

यजुर्वेद की 2 शाखाएँ हैं

  1. शुक्ल यजुर्वेद
  2. कृष्ण यजुर्वेद

ध्यातव्य रहे-शुक्ल यजुर्वेद को 'वाजसनेयी संहिता' भी कहते हैं। यजुर्वेद का अंतिम भाग 'ईशोपनिषद्' है, जिसका संबंध याज्ञिक अनुष्ठान से न होकर आध्यात्मिक चिंतन से है।

अथर्ववेद - 

अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की इसी कारण इसका नाम अथर्ववेद है। इस वेद का दूसरा वाचन अंगीरस ऋषि के द्वारा किया गया इसी कारण इसे 'अथर्वाडङ्गरस वेद' कहते हैं। चिकित्सा संबंधी जानकारियाँ होने के कारण अथर्ववेद को भिषक वेद और ब्रह्मा संबंधी विवेचना होने के कारण ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। इस वेद में अनार्य परम्पराओं ( वशीकरण, जादू-टोना, भूत-प्रेत तथा औषधि विज्ञान) का वर्णन मिलता है। 

इसके मन्त्रों का उच्चारण करने वाला 'ब्रह्मा' कहलाता है। वर्तमान में अथर्ववेद की सर्वाधिक प्रचलित शाखा शौनक शाखा है।'युद्ध का प्रारम्भ मनुष्य के मस्तिष्क में होता है।' यह कथन अथर्ववेद में लिखित है। 

ध्यातव्य रहे-अथर्ववेद में उल्लेखित तथ्य-युद्ध का प्रारम्भ मनुष्यों के मस्तिष्क में होता है सभा एवं समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ है तथा भूमि माता है तथा मैं उसका पुत्र हूँ। इसी वेद में मृत्युलोक का देवता 'परीक्षित' को बताया गया है।
अथर्ववेद में 731 सूत्र तथा 6000 मंत्रों का संग्रह है जो 20 अध्यायों में विभक्त है। इसी वेद के देव मण्डल में वरूण को परम ब्रह्म के रूप में माना गया है।

ध्यातव्य रहे-भारतीय साहित्यानुसार वेदों में आस्था रखने वाला आस्तिक तथा वेदों में आस्था न रखने वाला 'नास्तिक' कहलाता है। भारत में जैन बौद्ध धर्म को नास्तिक मानते हैं। प्राचीन हिन्दू विधि का लेखक मनु को कहा जाता है। हिन्दू विधि पर एक पुस्तक 'मिताक्षरा' विज्ञानेश्वर ने लिखी। प्रस्थानत्रयी में भगवतगीता, उपनिषद व ब्रह्मसूत्र सम्मिलित है।

ध्यातव्य रहे-ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद को 'वेदत्रयी' या त्रयी कहा जाता है। वैदिक साहित्य में प्रयुक्त ब्रीहि एवं तंदुल का तात्पर्य चावल से है। गेहूँ के लिये गोधूम शब्द का प्रयोग करते थे।

ब्राह्मण ग्रन्थ-

ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के गद्य भाग हैं, जिनके द्वारा वेदों को समझने में सहायता मिलती है। वेदों की सरल व्याख्या करने हेतु ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना गद्य में की गई। वेद (संहिता) स्तुति प्रधान हैं जबकि ब्राह्मण ग्रन्थ विधि प्रधान है। ब्राह्मण ग्रन्थों का काल 500 ई.पू. माना जाता है। इसलिए इन ग्रन्थों को ब्राह्मण साहित्य के नाम से भी जाना जाता है।

ब्रह्म का अर्थ यज्ञ होता है अत: वेबर का कथन है कि ब्राह्मण ग्रन्थ का अर्थ है-वह ग्रन्थ जो ब्रह्मा की स्तुति सम्बन्धी विषय पर लिखा गया है अर्थात् यज्ञ के विषयों का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाए। प्रत्येक वेद के अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं।

  1. ऋग्वेद-ऐतरेय ब्राह्मण (राज्याभिषेक के नियमों तथा कुछ राज्याभिषेक किए गये राजाओं के नामों का उल्लेख) व कौषितिकी ब्राह्मण।
  2. यजुर्वेद-शतपथ, तैत्तिरीय वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के बाद शतपथ ब्राह्मण का स्थान है। इसे 'वाजसनेयी ब्राह्मण' भी कहते हैं।

ध्यातव्य रहे-शतपथ ब्राह्मण सभी ब्राह्मण ग्रन्थों में सबसे बड़ा ब्राह्मण ग्रन्थ है। इसमें रामकथा, उद्यालक अरुणी व उनके पुत्र श्वेतकेतु, पुनर्जन्म, पुरूरवा, उर्वशी की कथा तथा विदेह माधव के पूर्व की ओर प्रवजन की कथा मिलती तैत्तिरीय उपनिषद्में मे अधिक अन्न उत्पन्न करना चाहिए यह नारा दिया गया है।

3. सामवेद-पंचविश ब्राह्मण इसे ही 'ताण्ड्य ब्राह्मण' भी कहते हैं, जिसमें व्रात्यस्तोम उत्सव (जिसके द्वारा अनार्यों को आर्य बनाया जाता था) का उल्लेख मिलता है।
ध्यातव्य रहे-इस ग्रन्थ में 25 सूक्त होने से इसे पञ्चविंश ब्राह्मण भी कहते हैं।
4.अथर्ववेद-गौपथ ब्राह्मण (एकमात्र)

आरण्यक-आरण्यक शब्द का शाब्दिक अर्थ-'वन पुस्तक' (वनों में पढ़ाया जाने वाला ग्रन्थ) है अर्थात् वन में लिखा जाने वाला ग्रन्थ इनकी रचना जंगल में रहने वाले साधु सन्यासियों के लिए की गई थी वर्तमान में कुल सात आरण्यक उपलब्ध हैं आरण्यकों से ही कालान्तर में उपनिषदों का विकास हुआ। रहस्यावाद का पहला वैदिक स्त्रोत आरण्यक ग्रन्थ को माना जाता है।

उपनिषद-

उप (समीप) +निषद् (बैठना) अर्थात् उपनिषद का शाब्दिक अर्थ होता है-'गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया गया ज्ञान।' उपनिषदों में पराविद्या (ब्रह्म विद्या) का ज्ञान है। इसमें ब्रह्मा, आत्मा, परमात्मा, जन्म, पुर्नजन्म, मोक्ष इत्यादि विषयों पर चर्चा की गई है। यह वेदों का अन्तिम भाग है इसलिए इन्हें वेदान्त भी कहते हैं, जो उपनिषद् मीमांसात्मक ग्रन्थ है। उपनिषदों की रचना मध्यकाल तक चलती रही। उपनिषद् हिन्दू दर्शन के स्रोत हैं। माना जाता है कि, अल्लोपनिषद् की रचना अकबर के काल में हुई थी

ध्यातव्य रहे-उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र तथा गीता को सम्मिलित रूप से प्रस्थान त्रयी भी कहा जाता है। मुक्तिकोपनिषद् के अनुसार उपनिषदों की कुल संख्या 108 हैं परन्तु वर्तमान में इनमें से 12 उपनिषद ही प्रमाणिक माने जाते हैं। शंकराचार्य ने दस उपनिषदों पर टीका लिखी है।

प्रमुख 12 उपनिषद् निम्नलिखित हैं 

  1. ईषोपनिषद्-ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या, गीता के निष्काम कर्म का सर्वप्रथम उल्लेख इसी में है। 
  2. कठोपनिषद्-इसमें आचार्य यम् द्वारा नचिकेता को ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया जाना वर्णित है। इसमें उल्लेखित है कि 'आत्मा का कभी न जन्म होता है और न कभी मृत्यु' (अर्थात् आत्मा अमर है)।
  3. वृहदारण्यक-सबसे बड़ा उपनिषद, इसके प्रवक्ता याज्ञवलक्य है, इसमें-ॐ शब्द एवं पुर्नजन्म के सिद्धान्त का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है। बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य-गार्गी/मैत्रेयी के दार्शनिक संवाद का वर्णन है। यह उपनिषद गद्य में लिखा गया है। 
  4. माण्डुक्य उपनिषद्-यह सबसे छोटा उपनिषद है, जिसमें मात्र 12 वाक्य है तथा इसमें उल्लेख है कि सृष्टि की उत्पत्ति एक आत्मा या ब्रह्म से हुई है। 
  5. मुण्डक उपनिषद्-राष्ट्रीय आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' व 'नानात्मा बलहीन लभ्य' अर्थात् परमात्मा का ज्ञान बलहीन व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकता मुण्डकोपनिषद् से ही लिया गया है। इसमें यज्ञ को 'टूटी-फूटी नौका' के समान बताया गया है। 
  6. श्वेताश्वर उपनिषद्-इसमें सर्वप्रथम भगवान शिव का उल्लेख मिलता है। यह उपनिषद् रुद्र देवता को समर्पित है।
  7. छान्दोग्य उपनिषद्-इसमें देवकी पुत्र श्री कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख एवं अद्वैत दर्शन का सबसे प्राचीन एवं स्पष्ट रूप मिलता है। इस उपनिषद् में इतिहास पुराण को पंचमवेद कहा गया है।
  8. केन उपनिषद्
  9. प्रश्न उपनिषद्
  10. तैत्तिरीय उपनिषद्      
  11. ऐतरेय उपनिषद्
  12. कौषीतकी उपनिषद्

वेदांग- 

वेदांगों की रचना वैदिक काल के अन्त में हुई जो वेदों के ही अंग हैं। वेदों के अर्थ को सरलता से समझने तथा वैदिक कर्मकाण्डों के प्रतिपादन में सहायता के लिए वेदांग नामक साहित्य की रचना गद्य के सूत्र रूप में की गई। इनमें कुल वेदांग छः हैं, जिनके नाम तथा क्रम का वर्णन सर्वप्रथम 'मुण्डकोपनिषद्' में मिलता है।

शिक्षा-

वैदिक स्वरों के सही एवं शुद्ध उच्चारण हेतु शिक्षा का निर्माण हुआ। शिक्षा नामक वेदांग की रचना वामज्य ऋषि' ने की है। वैदिक शिक्षा से सम्बन्धित प्राचीनतम ग्रन्थ 'प्रतिशाख्य' है। पाणिनीय शिक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण शिक्षा सूत्र है।

कल्प-

कल्प का अर्थ सूत्र है अर्थात् ऐसे सूत्र जिनमें कर्मकाण्ड से सम्बन्धित विधि नियमों का उल्लेख है, कल्प कहलाते हैं । कल्प की रचना गौतम ऋषि ने की। कल्प सूत्र तीन प्रकार के होते हैं-
(i) श्रोत सूत्र-जिनमें यज्ञ संबंधी विधि व नियमों का उल्लेख है। श्रोत सूत्र के शुल्व सूत्र में यज्ञ की सही माप हेतु सर्वप्रथम 'रेखागणित के बीज' मिलते हैं। (ii) गृह्य सूत्र-जिनमें मनुष्य के परलौकिक कर्तव्यों का उल्लेख है। इसमें 8 विवाहों का वर्णन दिया गया है।
(i।i) धर्म सूत्र-जिनमें मनुष्य के विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, वर्ण व्यवस्था एवं राजनीतिक अधिकारों और कर्त्तव्यों का वर्णन मिलता हैं।

व्याकरण-

भाषा को वैज्ञानिक शैली प्रदान करने के लिए व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गई अर्थात् शब्दों की मीमांसा करने वाला शास्त्र 'व्याकरण' कहा गया । व्याकरण की सबसे प्रमुख रचना 5वीं शताब्दी में पाणिनी द्वारा लिखी गई 'अष्टाध्यायी' है, जिसमें 18 अध्याय व 3863 मंत्रों का उल्लेख है। इस पुस्तक की कमी को दूर करने के लिए एवं संस्कृत में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की व्याख्या करने के लिए चौथी शताब्दी में कात्यायान ने 'वार्तिक' लिखे। बाद में पाणिनी के सूत्रों और कात्यायान के वार्तिकों को समझाने के लिए दूसरी शताब्दी ई.पू. (शुंग काल) में पंतजलि ने 'महाभाष्य' नामक ग्रन्थ लिखा।

निरूक्त-

क्लिष्ठ/कठिन वैदिक शब्दों के संकलन निघण्ट की व्याख्या करने, वैदिक शब्दों के अर्थ, भाष्य एवं व्युत्पत्ति सम्बन्धी विवेचन करने के लिए 5वीं शताब्दी में 'यास्क' ने निरूक्त की रचना की जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रन्थ व संस्कृत गद्य का सर्वप्राचीन ग्रन्थ माना जाता है।

छन्द-

मन्त्रों की रचना को समझने के लिए छन्द निर्मित किए गए। छन्द शास्त्र पर पिंगल मुनि ने "छन्द सूत्र / शास्त्र' नामक ग्रन्थ लिखा। वैदिक साहित्य में (ऋग्वेद में), सर्वाधिक लोकप्रिय छन्द त्रिष्ट (4253 बार प्रयोग), गायत्री छन्द (2467 बार), जगती छन्द (1358 बार) एवं वृहत्ती, उष्णिक, अनुष्टुप आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है।
6. ज्योतिष-शुभ मुहूर्त में याज्ञिक अनुष्ठान करने के लिए ग्रहों तथा नक्षत्रों का अध्ययन करके सही समय ज्ञात करने की विधि से ही ज्योतिष की उत्पत्ति हुई। ज्योतिष की सबसे प्राचीन रचना लगध मुनि द्वारा रचित 'वेदांग ज्योतिष' है।

वेदांगों के उपनाम

शिक्षा - वेद की नासिका(नाक)
कल्प - वेद के हाथ
निरूक्त - वेद के कान (श्रोत)
व्याकरण - वेद के मुख
छन्द - वेद के पैर
ज्योतिष - वेद की आँख

पुराण-

इसका शाब्दिक अर्थ-'प्राचीन आख्यान' (कहानी) है, पुराणों की रचना 'महर्षि लोमहर्ष' और उनके पुत्र 'उग्रश्रवा' ने की थी। इनमें प्राचीन भारतीय राजवंशों की जानकारी व वंशावली मिलती है। इनकी कुल संख्या-18 थी, जिन्हें प्राचीन भारत के संदर्भ में 'विश्वकोष' कहा जाता है। इनमें सबसे प्राचीन व प्रमाणिक पुराण-'मत्स्य पुराण' माना गया है। मत्स्य पुराण में सातवाहन एवं शुंग वंश की, विष्णु पुराण में भरत एवं मौर्य वंश की तथा वायु पुराण में गुप्तवंश से सम्बन्धित जानकारी मिलती है। भागवत पुराण में विष्णु के अवतारों का उल्लेख मिलता है, इसलिए वैष्णव धर्म में यह 5वाँ वेद कहलाता है।

ध्यातव्य रहे-स्कंद पुराण में गढ़वाल हिमालय को केदारखण्ड और कुमाऊं हिमालय को मानखण्ड कहा गया है। समस्त प्राचीन साहित्य में गढ़वाल-कुमाऊं को सम्मिलित रूप से उत्तराखण्ड कहा गया है। विष्णु पुराण में उल्लेखित है-'समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में जो स्थित है । यह भारत देश है तथा वहाँ की सन्तानें भारतीय हैं।

दर्शन- संस्कृत भाषा में आध्यात्मिक ज्ञान को दर्शन कहते हैं। भारतीय दर्शन, आस्तिक तथा नास्तिक दो भागों में बंटा है। नास्तिक दर्शन के तीन भाग हैं, सीगन, चार्वाक तथा अहित । आस्तिक दर्शन न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, उत्तर मीमांसा, सांख्य तथा योग छः भागों में बंटे हुए हैं। 

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