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Vedang in Hindi-वेदांग और उनका संक्षिप्त परिचय

Vedang in Hindi-वेदांग और उनका संक्षिप्त परिचय

 Vedang in Hind     - दोस्तों आज indgk आप सब छात्रों के लिए भारतीय इतिहास सामान्य ज्ञान से संबंधित बहुत ही महत्वपूर्ण नोट्स “Vedang In Hindi” शेयर कर रहा है. जो छात्र UPSC, IAS, SSC, Civil Services, SBI PO, Banking, Railway RRB, RPF या अन्य Competitive Exams की तैयारी कर रहे है उन्हें ‘Vedang In Hindi’ अवश्य पढना चाहिए. 

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Vedang in Hindi-वेदांग और उनका संक्षिप्त परिचय

Vedang in Hindi- वेदांग और उनका संक्षिप्त परिचय

➽वेदांग-युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं की शाखाओं का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं
➽ वेदांग का शाब्दिक अर्थ है वेदों का अंग, तथापि इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है।
वे ये हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष
➽वैदिक शाखाओं के अन्तर्गत ही उनका पृथकृ-पृथक वर्ग स्थापित हुआ और इन्हीं वर्गों के पाठ्य ग्रन्थों के रूप में सूत्रों का निर्माण हुआ।
➽कल्पसूत्रों को चार भागों में विभाजित किया गया-श्रौत सूत्र जिनका संबंध महायज्ञों से था, गृह्य सूत्र जो गृह संस्कारों पर प्रकाश डालते थे, धर्म सूत्र जिनका संबंध धर्म तथा धार्मिक नियमों से था, शुल्व सूत्र जो यज्ञ, हवन-कुण्ठ बेदी, नाम आदि से संबंधित थे।
➽वेदांग से जहाँ एक ओर प्राचीन भारत की धार्मिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त होता है, वहाँ दूसरी ओर इसकी सामाजिक अवस्था का भी।
➽वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं।
➽वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'।
➽वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-

शिक्षा- वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बंधी प्राचीनतम साहित्य 'प्रातिशाख्य' है।
व्याकरण- वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किए गये विधि नियमों का प्रतिपादन 'कल्पसूत्र' में किया गया है।
ज्योतिष- इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
निरुक्त- शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र 'निरूक्त' कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने 'निरूक्त' की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
छंद- वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्ध है।
कल्प- इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम आचार्य 'लगध मुनि' है।

➽शिक्षा

➽वेदों के स्वर, वर्ण आदि के शुद्ध उच्चारण करने की शिक्षा जिससे मिलती है, वह 'शिक्षा' है। 
➽वेदों के मंत्रों का पठन पाठन तथा उच्चारण ठीक रीति से करने की सूचना इस 'शिक्षा' से प्राप्त होती है। 
➽इस समय 'पाणिनीय शिक्षा' भारत में विशेष मननीय मानी जाती है।

➽स्वर, व्यंजन ये वर्ण हैं; ह्रस्व, दीर्घ तथा प्लुत ये स्वर के उच्चारण के तीन भेद हैं। 
➽उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित ये भी स्वर के उच्चारण के भेद हैं। वर्णों के स्थान आठ हैं -

(1) जिह्वा, (2) कंठ, (3) मूर्धा , (4) जिह्वामूल, (5) दंत, (6) नासिका, (7) ओष्ठ और (8) तालु।
कण्ठः – अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः – (‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ ड्‚ ह्‚ : = विसर्गः )

तालुः – इचुयशानां तालुः – (‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ ञ्‚ य्‚ श् )

मूर्धा – ऋटुरषाणां मूर्धा – (‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्)

दन्तः – लृतुलसानां दन्तः – (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्)

ओष्ठः – उपूपध्मानीयानां ओष्ठौ – (‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ उपध्मानीय प्‚ फ्)

नासिका  – ञमङ णनानां नासिका  (ञ्‚ म्‚ ङ्‚ ण्‚ न्)

कण्ठतालुः – एदैतोः कण्ठतालुः – (‚ एे)

कण्ठोष्ठम् – ओदौतोः कण्ठोष्ठम् – (‚ )

दन्तोष्ठम् – वकारस्य दन्तोष्ठम् ()

जिह्वामूलम् – जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् (जिह्वामूलीय क्‚ ख्)

नासिका – नासिकानुस्वारस्य ( = अनुस्वारः)


इन आठ स्थानों में से यथायोग्य रीति से, जहाँ से जैसा होना चाहिए वैसा, वर्णोच्चार करने की शिक्षा यह पाणिनीय शिक्षा देती है। अत: हम इसको 'वर्णोच्चार शिक्षा' भी कह सकते हैं।


➽व्याकरण के प्रयोजन

➽आचार्य वररुचि ने व्याकरण के पाँच प्रयोजन बताए हैं- (1) रक्षा (2) ऊह (3) आगम (4) लघु (5) असंदेह
(1) रक्षा
(2) ऊह
(3) आगम
(4) लघु
(5) असंदेह

➽व्याकरण का अध्ययन वेदों की रक्षा करना है।
➽ऊह का अर्थ है-कल्पना। 
➽वैदिक मन्त्रों में न तो लिंग है और न ही विभक्तियाँ। 
➽लिंगों और विभक्तियों का प्रयोग वही कर सकता है जो व्याकरण का ज्ञाता हो।
➽आगम का अर्थ है- श्रुति। 
➽श्रुति कहती है कि ब्राह्मण का कर्त्तव्य है कि वह वेदों का अध्ययन करे।
➽लघु का अर्थ है-शीघ्र उपाय। 
➽वेदों में अनेक ऐसे शब्द हैं जिनकी जानकारी एक जीवन में सम्भव नहीं है।
➽व्याकरण वह साधन है जिससे समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है।
➽असंदेह का अर्थ है-संदेह न होना। 
➽संदेहों को दूर करने वाला व्याकरण होता है, क्योंकि वह शब्दों का समुचित ज्ञान करवाता है।

➽कल्प –

➽वैदिक साहित्य में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के कर्म – कांडों को कल्प सूत्र में लिखा गया है।
➽इसके 4 भाग हैं(कल्प को ही सूत्र साहित्य कहा गया है)-

➽धर्म सूत्र-

➽वैदिक समाज के सामाजिक नियम – कानून सूत्र रूप में मिलते हैं । 
➽इसमें एक – एक पंक्ति में श्लोक मिलते हैं। 
➽इसी धर्म सूत्र पर आगे स्मृति ग्रंथ लिखे गये।

2.गृह्य सूत्र-


➽व्यक्ति और परिवार से संबंधित व्यक्तियों और कर्म – कांडों का उल्लेख है।

3.श्रौत सूत्र-


  ➽इस सूत्र में संपूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिये विविध प्रकार के कर्मकांड दिये हुये हैं।

4.शुल्व सूत्र- 


➽शुल्व का शाब्दिक अर्थ होता है-रस्सी । 
➽इसमें वैदिक यज्ञों के निर्माण की विधि (हवन कुण्ड को बनाने की विधि) बताई गई है। 
➽यज्ञ वेदियों का प्रकार कैसा होगा , वो सब इसमें बताया गया है। 
➽इसे भारतीय ज्यामिति का प्राचीनतम ग्रंथ कहा गया है।

➽वेद पुरुष के 6 अंग माने गये हैं- कल्प, शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त तथा ज्योतिष। 
➽मुण्डकोपनिषद में आता है-
'तस्मै  हो वाच। द्वै विद्ये वेदितब्ये इति  स्म यद्ब्रह्म विद्यौ वदंति परा चैवोपरा च॥
तत्रापरा ॠग्वेदो यजुर्वेदसामवेदोऽर्थ वेदशिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दोज्योतिषमिति। अथ परा यथा तदक्षरमधिगम्यते॥

➽'अर्थात मनुष्य को जानने योग्य दो विद्याएं हैं-परा और अपरा। 
➽उनमें चारों वेदों के शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद, ज्योतिष- ये सब 'अपरा' विद्या हैं तथा जिससे वह अविनाशी परब्रह्म तत्त्व से जाना जाता है, वही 'परा' विद्या है।'
इन छ: को इस प्रकार बताया गया है- ज्योतिष वेद के दो नेत्र हैं, निरुक्त 'कान' है, शिक्षा 'नाक', व्याकरण 'मुख' तथा कल्प 'दोनों हाथ' और छन्द 'दोनों पांव' हैं-


शिक्षा घ्राणं तु वेदस्यहस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते मुखं व्याकरणं स्मृतम्।
निरुक्त श्रौतमुच्यतेछन्दपादौतु वेदस्य ज्योतिषामयनं चक्षु:


➽वैदिकमन्त्रों के स्वर, अक्षर, मात्रा एवं उच्चारण की विवेचना 'शिक्षा' से होती है। 
➽शिक्षाग्रन्थ जो उपलब्ध हैं-पाणिनीय शिक्षा (ॠग्वेद), व्यास शिक्षा (कृष्ण यजुर्वेद), याज्ञवल्क्य आदि 25 शिक्षाग्रन्थ (शुक्ल यजुर्वेद), गौतमी, नारदीय, लोमशी शिक्षा (सामवेद) तथा माण्डूकी शिक्षा (अथर्ववेद)।
➽भाषा नियमों का स्थिरीकरण 'व्याकरण' का कार्य है। 
➽शाकटायन व्याकरण सूत्र तथा पाणिनीय व्याकरण यजुर्वेद से सम्बद्ध माने जाते हैं। 
➽इनके अतिरिक्त सारस्वत व्याकरण, प्राकृत प्रकाश, प्राकृत व्याकरण, कामधेनु व्याकरण, हेमचन्द्र व्याकरण आदि अनेक व्याकरण शास्त्र के ग्रन्थ भी हैं। 
➽सभी पर अनेक भाष्य एवं टीकाएं लिखी गयी हैं। 
➽अनेक व्याकरण-ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं।
➽वेदों की व्याख्या पद्धति बताना 'निरुक्त' का कार्य है। 
➽इसके अनेक ग्रन्थ लुप्त हैं। 
➽निरुक्त को वेदों का विश्वकोश कहा गया है। 
➽अब यास्क का निरुक्त ग्रन्थ उपलब्ध है, जिस पर अनेक भाष्य रचनाएं हुई हैं।
➽'छन्द' के कुछ ग्रन्थ ही मिलते हैं, जिसमें वैदिक छन्दों पर गार्ग्यप्रोक्त उपनिदान-सूत्र (सामवेदीय), पिंगल नाग प्रोक्त छन्द: सूत्र (छन्दोविचित) वेंकट माधव क्ड़ड़त छन्दोऽनुक्रमणी, जयदेव कृत छन्दसूत्र के अतिरिक्त लौकिक छन्दों पर छन्दशास्त्र (हलायुध वृत्ति), छन्दोमञ्जरी, वृत्त रत्नाकर, श्रुतबोध आदि हैं।
➽जब ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञ-यागादि की कर्मकांडीय व्याख्या में व्यवहारगत कठिनाइयाँ आईं, तब कल्पसूत्रों की 'प्रतिशाखा' में रचना हुई। 
➽ऋग्वेद के प्रातिशाख्य वर्गद्वय वृत्ति में कहा गया है-
'कल्पौ वेद विहितानां कर्मणामानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्।'

➽'अर्थात् 'कल्प' वेद प्रतिपादित कर्मों का भली-प्रकार विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। कल्प में यज्ञों की विधियों का वर्णन होता है।'

➽ज्योतिष का मुख्य प्रयोजन संस्कार एवं यज्ञों के लिए मुहूर्त निर्धारण करना है एवं यज्ञस्थली, मंडप आदि का नाम बतलाना है। 
➽इस समय लगधाचार्य के वेदांग ज्योतिष के अतिरिक्त सामान्य ज्योतिष के अनेक ग्रन्थ है। 
➽नारद, पराशर, वसिष्ठ आदि ॠषियों के ग्रन्थों के अतिरिक्त वाराहमिहिर, आर्यभट, ब्राह्मगुप्त, भास्कराचार्य के ज्योतिष ग्रन्थ प्रख्यात हैं। 
➽पुरातन काल में ज्योतिष ग्रन्थ चारों वेदों के अलग-अलग थे-आर्ष ज्योतिष (ॠग्वेद), याजुष ज्योतिष (यजुर्वेद) और आथर्वण ज्योतिष (अथर्ववेद)।

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