भारत की विदेश नीति एवं नेहरू जी का योगदान ( India's Foreign Policy and Nehru's Contribution )
किसी भी राष्ट्र की विदेश नीति से उसके अंदरुनी और बाहरी सरोकारों की झलक मिलती है। विदेश नीति अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय हितों के बीच संतुलन स्थापित करती है। यह कुछ निश्चित मापदंडों और सिद्धान्तों पर आधारित होती है। इन्हीं मापदंडों पर कोई राज्य अन्य राज्यों के साथ संबंध स्थापित करता है।
भारत को विदेश नीति जिन मूल सिद्धान्तों पर आधारित रही है. उनकी वर्तमान बुनियाद तो संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर रखी गई है लेकिन ऐतिहासिक रूप से इस संबंध का विस्तृत वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ही मिलता है।
भारत की विदेश नीति एवं नेहरू जी का योगदान |
कौटिल्य द्वारा विदेश नीति के 6 मूल सिद्धान्तों की व्याख्या की गई है-
- शासक द्वारा अपने राज्य के विकास के लिए संसाधनों एवं शक्ति का विस्तार
- शत्रु पर दमनकारी नीति का प्रयोग
- सहायता करने वाले राज्यों के साथ मित्रवत व्यवहार।
- तार्किक नीतियों का अनुपालन ।
- युद्ध की अपेक्षा शांति को प्राथमिकता शासक का न्यायोचित व्यवहार।
- यदि हम कौटिल्य को नीति का तार्किक विश्लेषण करे तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि वर्तमान में भारत जिस विदेश नीति का पालन करता है उसके मूल सिद्धान्त भी कमोबेश यही है।
भारत की विदेश नीति को प्रभावित करने वाले तत्त्व:-
भौगोलिक अवस्थिति:- किसी भी देश की विदेश नीति के निर्धारण में उसकी भौगोलिक अवस्थिति की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसका मुख्य कारण उस देश की भौगोलिक स्थिति द्वारा मृदा की उर्वरता, जल संसाधनों की उपलब्धता, जनांकिकीय कारक तथा आर्थिक संसाधनों को प्रचुरता का निर्धारण है। इन्हीं संसाधनों तथा कारकों के आधार पर यह देश स्वयं को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाने में सक्षम होता है इस पृष्ठभूमि में निर्धारित विदेश नीति उसकी राजनीतिक शक्ति के विस्तार में सहायक होती है।
भारत दक्षिण एशिया का हिन्द महासागर का तटवर्ती एक प्रमुख देश है 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से हिन्द महासागर के महत्त्व में वृद्धि हुई है। सम्पूर्ण हिन्द महासागरीय क्षेत्र विशेष कर दक्षिण एशिया आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत सक्रिय बना हुआ है
हिन्द महासागर संचार, परिवहन और व्यापार की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। इसके शीर्ष पर अवस्थित होने के कारण भारत को इसके सभी व्यापारिक मार्गों पर निगरानी रख पाने का लाभ मिलता है। भारत के समुद्रवर्ती सिद्धान्त में अरब सागर को विशेष महत्त्व वाला क्षेत्र कहा गया है। इस कारण भारत ने ऐसे कई तटवर्ती राज्यों के साथ संबंध बनाए है जो अरब सागर के विभिन्न बिंदुओं के संपर्क में है। जैसे ईरान, दक्षिण अफ्रीका, सिंगापुर, थाईलैंड आदि। इस संदर्भ में भारत ने 'पश्चिम की ओर देखो' नीति (Look East Policy) का पालन किया है। इसके तहत भारत ने श्रीलंका, बांग्लादेश और म्यांमार के साथ अलग-अलग तीतियाँ अपनाई है। जहाँ भारत-श्रीलंका संबंध आर्थिक और an सुरक्षात्मक आधारों पर बनाए गए हैं वहीं बांग्लादेश के साथ नदियों के जल की साझेदारी संबंधी विवादों को दूर करने को कोशिश की जा रही है। भारत-म्यांमार संयुक्त नौसैनिक अभ्यास से दोनों देशों के संबंध सुदृढ़ बने हैं।
इसी प्रकार आसियान देशों (दक्षिण पूर्वी एशिया) के साथ भारत ने समुद्री मार्गों को ध्यान में रखते हुए व्यापारिक संबंधों ने की स्थापना की है। इस क्षेत्र में कूटनीतिक सफलता बिम्स्टेक (BIMSTEC Bay of Bengal Initiative for Multi Sectoral Technical and Economic Cooperation) के रूप में देखी जा सकती है।
अतः स्पष्ट है कि भारत का भूगोल एक ओर जहाँ प्रायद्वीपीय भारत को मजबूत बनाता है वहीं भारत की विदेश नीति के समक्ष सीमा और सुरक्षा संबंधी कई चुनौतियाँ भी उत्पन्न करता है।
भारत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि -
औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश प्रशासन द्वारा शोषण किए जाने के उपरांत भारत ने ऐसे विचारों का विरोध करते हुए अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा की स्थापना के लिए न्यायोचित वैश्विक व्यवस्था कायम करने की अपनी कटिबद्धता अभिव्यक्त की है।
अंग्रेजी सरकार अपने पीछे अंतरराष्ट्रीय विवादों की एक पूरी विरासत छोड़ गई थी बँटवारे के कारण अलग से दबाव पैदा हुए थे और गरीबी मिटाने का काम मुँह बाए खड़ा था इन्हीं संदर्भों के बीच भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र राज्य के रूप में अंतरराष्ट्रीय मामलों में भागीदारी शुरू की।
सांस्कृतिक सम्पन्नता -
विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि :-
एक राष्ट्र के रूप में भारत का जन्म विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि में हुआ था। ऐसे में भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान करने और शांति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सामने रखा। इस लक्ष्य को प्रतिध्वनि संविधान के नीति निदेशक सिद्धान्तों में सुनाई पड़ती है।
विकास के लिए जरूरी संसाधनों का अभाव -
विकासशील देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के भीतर अपने सरोकारों को पूरा करने के लिए जरूरी संसाधनों का अभाव होता है। वे आर्थिक और सुरक्षा की दृष्टि से ताकतवर देखें पर निर्भर होते हैं। इस निर्भरता का भारत की विदेश नीति पर असर पड़ा है। भारत ने अपने विकास को ध्यान में रखते हुए सभी देशों से अच्छे संबंध बनाए रखने की नीति अपनाई है।
विभिन्न विचारधाराओं के प्रभाव -
भारतीय विदेश नीति को प्रभावित करने में विभिन्न विचारधाराओं ने भी योगदान दिया है। शीत युद्धकालीन विश्व में भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति का अनुसरण करते हुए विश्व में अपनी अलग पहचान बनाने में सफलता प्राप्त की थी। ऐसी कई अन्य विचारधाराओं जैसे गाँधीवाद, अहिंसा, सत्याग्रह, लोकतंत्र और समाजवाद ने भी भारतीय विदेश नीति को प्रभावित किया। भारत का स्वतंत्रता आंदोलन जिन उदत्त विचारों से प्रेरित था उनका असर भारत की विदेश नीति पर भी पड़ा।
स्वतंत्र भारत की विदेश नीति के सिद्धान्त तत्त्व या विशेषताएँ:-
स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद से ही भारत ने अपनी राजनीतिक और राजनयिक पहचान बनाए रखने के लिए एक स्वत विदेश नीति का पालन किया है।
भारत की विदेश नीति का संवैधानिक आधार अनुच्छेद 51 में निम्न प्रकार उल्लिखित है- अनुच्छेद 51: नीति निदेशक तत्व अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि-
राज्य-
- (a) अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा अभिवृद्धि का,
- (b) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का,
- (c) संगठित लोगों के एक-दूसरे से व्यवहारों में अंतरराष्ट्रीय विधि और संधि-बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का
- (d) अंतरराष्ट्रीय विवादों के मध्यस्थ द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा।
उपरोक्त सिद्धान्तों को
ध्यान में रखते हुए भारत ने अपनी विदेश नीति में निम्न तत्वों का समावेश किया है-
(1) गुटनिरपेक्षता (Non-Alignment) -
जब भारत आजाद हुआ था और अपनी विदेश नीति तैयार कर रहा था तब शीत युद्ध शुरू ही हुआ था और आर्थिक कारणों से दुनिया बड़ी तेजी से दो खेमों में बँटती जा रही थी। एक खेमे का अगुआ संयुक्त राज्य अमेरिका था और दूसरे का सोवियत संघ। दोनों खेमों के बीच विश्वस्तर पर आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य टकराव जारी था।
भारत ने इन वैचारिक
विद्वेषों से परे रहते हुए एक ऐसी नीति का पालन किया जो उसके आर्थिक राजनीतिक तथा सामरिक
हितों की पूर्ति कर सके। अत: भारत ने ‘गुटनिरपेक्षता की नीति' अपनाई। सर्वप्रथम 'गुटनिरपेक्ष'
शब्द का प्रयोग 1947 में श्री बी. के. कृष्ण मेनन ने किया था।
गुटनिरपेक्षता का अर्थ है -
जो उचित और न्यायसंगत
है उसको सहायता एवं समर्थन करना और जो अनुचित एवं अन्यायपूर्ण है उसकी आलोचना एवं निन्दा
करना। इसका तात्पर्य पृथकतावाद अथवा तटस्थता नहीं है। गुटनिरपेक्षता की इस नीति के
जनक पं. जवाहरलाल नेहरू थे। इस नीति से भारत न केवल अपने राष्ट्रीय हितों की पूर्ति
करने में सफल रहा वरन् शीत युद्धोत्तर विश्व में भारत ने विकासशील देशों के हितों की
रक्षा में अग्रणी भूमिका निभाई। भारत की गुट निरपेक्षता सकारात्मक और सतत गतिशील नीति
है। भारत इस नीति के अंतर्गत विश्व की घटनाओं के प्रति एक स्वतंत्र दृष्टिकोण रखता
है।
गुटनिरपेक्षता की संकल्पना को आधार देने तथा उसे व्यावहारिक बनाने के लिए 1955 में इंडोनेशिया के नगर बांडुंग में ' बाडुंग सम्मेलन' आयोजित किया गया। इस सम्मेलन को गुट निरपेक्षता की बुनियाद के रूप में स्वीकार किया गया। इसी समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू मिस्त्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासिर तथा यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टोटो को इस संकल्पना का जन्मदाता माना गया। इस सम्मेलन ने नवोदित राष्ट्रों के मध्य सहयोग का मार्ग प्रशस्त किया जो आगे चलकर NAM (Non Aligned Movement) के रूप में विकसित हुआ।
गुटनिरपेक्षता को 1961 में बेलग्रेड सम्मेलन में अधिकारिक रूप से अनुमोदित किया गया था। गुट निरपेक्ष आंदोलन संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद सबसे बड़ा राजनीतिक अंतरराष्ट्रीय संगठन था। उस समय यह संगठन 25 विकासशील देशों द्वारा दो विश्व शक्तियों अमेरिका व रूस की गुटीय प्रतिस्पर्धा से तटस्थ रहते हुए अपनी नवजात स्वतंत्रता को कायम रखने हेतु बनाया गया था।
1961-64 के बीच गुट निरपेक्षता की संकल्पना का तीव्र गति से विस्तार हुआ। 1964 में काहिरा में आयोजित दूसरे गुट निरपेक्ष सम्मेलन में सदस्यों ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से विवादों और संघर्ष से दूर रहने की अपील करते हुए राष्ट्रों की आर्थिक समस्याओं को दूर करने के लिए पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिए अपनी वचनबद्धता जाहिर की। 1970 व 1980 के दशकों में गुटनिरपेक्षता की संकल्पना ने परिपक्वता प्राप्त की।
1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में पुन: बेलग्रेड सम्मेलन में 100 से अधिक सदस्यों ने एक न्यायोचित वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण के प्रयासों को गति देने का निर्णय किया 1990 का दशक गुट निरपेक्ष आंदोलन के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण रहा है।
इसका सबसे बड़ा कारण सोवियत
संघ के विघटन के बाद शीतयुद्ध की समाप्ति को माना जा सकता है। विश्व स्तर पर यह मान्यता
प्रचलित हो गई कि विश्व एक ध्रुवीय हो गया था तथा इन परिस्थितियों में गुटनिरपेक्षता
का कोई औचित्य नहीं था।
हाल हो के वर्षों में गुटनिरपेक्षता की सहायता से दक्षिण-दक्षिण सहयोग के तहत विकासशील राष्ट्रों के बीच समन्वय और सहयोग विकसित किया गया है। दूसरी ओर इस आंदोलन ने संयुक्त राष्ट्र संघ के लोकतांत्रियकरण को भी बढ़ावा देने के लिए वैश्विक जागरूकता लाने का प्रयास किया है।
सतत विकास और सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों की प्राप्ति वर्तमान में गुट निरपेक्ष आंदोलन का आधार है। इसी प्रकार यह सांस्कृतिक विविधताओं और मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए भी प्रयासरत है।
शांतिपूर्ण सहअस्तित्व : ( Peaceful Co existence) -
शांतिपूर्ण सहअस्तित्व एक ऐसी अवधारणा है जिसमें विरोधी विचारों वाली दो या उससे अधिक इकाइयाँ शांतिपूर्ण स्थितियों में बनी रहती है। भारत ने सदैव वसुधैव कुटुम्बकम तथा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की अवधारणा पर बल दिया है। पारस्परिक सहयोग के माध्यम से विश्व शांति और सुरक्षा की स्थापना ही भारत की विदेश नीति : उद्देश्य रहा है।
इस नीति के तहत ही
चीन व भारत के मध्य 29 अप्रैल, 1954 को तिब्बत के संबंध में एक समझौता हुआ था जिसे
'पंचशील के सिद्धान्त' कहा जाता है। इस समझौते में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के 5 मूल
सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया था-
- (a) एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के प्रति पारस्परिक सम्मान
- (b) गैर-आक्रामक नीति
का पालन।
- (c) एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का पालन
- (d) परस्पर समानता व पारस्परिक लाभ के आधार पर कार्य करना।
- (c) शांतिपूर्ण सहअस्तित्व
सन् 1955 में बांडुंग
में हुए अफ्रो-एशियाई सम्मेलन में स्वीकृत विश्व शांति एवं सहयोग की घोषणा भी इन्हें
शामिल किया गया।
उपनिवेशवाद व
साम्राज्यवाद का विरोध (Protest Against Colonialism and
Imperialism)-
भारत औपनिवेशिक शासन के दौरान लंबी अवधि तक पीड़ित रहा। इस कारण स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल बाद से ही भारत ने उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद तथा विस्तारवाद की नीतियों का खुलकर विरोध किया है। भारत ने अपनी विदेश नीति में विशेषकर एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका में औपनिवेशिक विस्तार को समाप्त करने वाली रणनीति शामिल की थी।
उपनिवेशवाद आर्थिक शोषण को बढ़ावा देता है। वहीं साम्राज्यवाद वह अवधारणा है जिसमें किसी शक्तिशाली राष्ट्र द्वारा किसी कमजोर राष्ट्र पर आधिपत्य स्थापित किया जाता है। साम्राज्यवादी नीतियों का योगदान दोनों विश्वयुद्धों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा था। इन युद्धों के दुष्प्रभावों से भारत पूर्णत: परिचित था।
इस कारण आरंभिक चरणों से ही इन विचारधाराओं का विरोध विदेश नीति के एक अनिवार्य तत्व के रूप में शामिल किया गया। इसी नीति के अंतर्गत भारत ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इंडोनेशिया पर हॉलैंड के आक्रमण का विरोध किया।
सन् 1956 में मिश्र में स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के प्रश्न पर ब्रिटेन एवं फ्रांस के आक्रमण का विरोध किया संयुक्त राष्ट्रसंघ में निरन्तर उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का विरोध किया। यहाँ तक कि जब संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा पर अधिकार करने का प्रयास किया तो उसका भी विरोध किया।
अंतरिम सरकार में नेहरू ने ब्रिटिश
शासन के अतंर्गत जो भारतीय सेनाएँ स्वतंत्रता आंदोलन का दमन करने के लिए भेजी गयी थी,
उनको वहाँ से बुला लिया और हिन्द चीन, इंडोनेशिया, लीबिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया व अल्जीरिया
के स्वतंत्रता आंदोलनों में भारत ने अपना सक्रिय सहयोग दिया।
1990 के दशक में आर्थिक
उदारीकरण के बाद नव-उपनिवेशवाद तथा नव साम्राज्यवाद की अवधारणा प्रचलित हो गई जिनका
आधार आर्थिक था लेकिन भारत ने विश्व व्यापार संगठन की विभिन्न वार्ताओं के माध्यम
से इनका भी विरोध किया।
शांतिवादिता
(Peace Making) :-
उसका तात्पर्य संतुलित शक्ति संबंधों की स्थापना से है। शांतिवादिता संघर्ष निवारण का एक स्वरूप है। किसी विवाद समाधान में शक्ति का प्रयोग किए बिना अपनी सक्रियता दर्शाने की भावना इसका आधार है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्य के रूप में शांतिवादिता के प्रयासों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
चाहे उत्तरी
और दक्षिण कोरिया के बीच 1950 का युद्ध हो या कांगो, अंगोला, साइप्रस, इराक अथवा गाजा
में संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना की बात हो, भारत ने अपनी विशिष्ट भूमिका निभाई है।
सहयोगात्मक क्षेत्रवाद (Cooperative Regionaltism) -
भारत ने अपनी विदेश नीति के माध्यम से क्षेत्रवाद की स्थापना पर जोर दिया है। पारस्परिक सहयोग तथा एक-दूसरे आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप की रणनीति के जरिए इसके प्रयास किए जाते है। इस संदर्भ में भारत ने 'गुजराल सिद्धान्त को अपनाया है जिसका मूल आधार सहयोगात्मक क्षेत्रवाद है।
भारत का सहयोगात्मक क्षेत्रवाद इस मूल भावना पर आधारित है
कि पड़ौसियों के साथ-साथ विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी समान उद्देश्यों का निर्धारण
कर संबंधों से को स्थापना की जाए। ऐसे उद्देश्यों की प्रकृति वैश्विक होनी चाहिए।
गुजराल सिद्धान्त-
भारत के विदेश मंत्री तथा
बाद में प्रधानमंत्री के रूप में इंद्रकुमार गुजराल द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त
के पाँच अनिवार्य तत्व है-
- पड़ोसी देशों जैसे बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, श्रीलंका तथा नेपाल के साथ भारत गैर-अन्योन्यता (Non-reciprocity) पर आधारित विश्वसनीय संबंधों की स्थापना करेगा।
- दक्षिण एशिया के देशों द्वारा पारस्परिक हितों की रक्षा।
- किसी देश के आंतरिक मामलों में अन्य देशों द्वारा अहस्तक्षेप ।
- सभी दक्षिण एशियाई देशों द्वारा एक-दूसरे की संप्रभुता तथा क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान।
- द्विपक्षीय शांति वार्ताओं के जरिए विवादों का समाधान।
बहुपक्षीयता (Multilateralism):-
बहुपक्षीयता वह संकल्पना है जिसमें एक से अधिक राष्ट्र किसी विषय पर सहमति व्यक्त करते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व व्यापार संगठन ऐसी बहुपक्षीयता के उदाहरण हैं।
सोवियत संघ के विघटन के बाद तथाकथित एकध्रुवीय विश्व अथवा एकपक्षीय विश्व की जो संकल्पना विकसित हुई थी, उसका विरोध करते हुए भारत ने उन सभी देशों तथा संगठनों के साथ संबंधों को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया है जो विश्व को बहुपक्षीय बनाने में सहायक हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए
भारत ने विभिन्न व्यापारिक मंगठनों जैसे आसियान तथा यूरोपियन यूनियन आदि के संबंधों
में सुधार किए है। दूसरी ओर दक्षिणी एशियाई क्षेत्र को संगठित करने के लिए दक्षेस की
स्थापना, साफ्टा को लागू करने के लिए पहल आदि प्रयासों के अतिरिक्त निम्न विशिष्ट नीतियाँ
भी अपनाई हहै-
(a)लुक ईस्ट पॉलिसी :-
एशिया का दक्षिण पूर्वी क्षेत्र आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण होने के कारण बाजार के रूप में महत्त्वपूर्ण शक्तियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। शीतयुद्ध के दौरान भारत इस क्षेत्र का लाभ नहीं ले पाया था जिसका प्रमुख कारण भारत का सोवियत संघ की ओर झुकाव था। शीत युद्ध की समाप्ति और बाजारी अर्थव्यवस्था के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के एकीकरण ने भारत की 'लुक ईस्ट नीति' की आधारशिला रखी।
इसके माध्यम से न केवल आसियान के सदस्यों बल्कि सम्पूर्ण एशिया प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ भारत ने संबंधों की स्थापना पर जोर दिया। पिछले वर्षों में आसियान देशों से भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश बढ़ा है।
भारत के उपभोक्ता बाजार का आकार विस्तृत होने के कारण भारत में बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग की संकल्पना ने भी भारत की लुक ईस्ट नीति को समर्थन दिया है। इस नीति के कारण भारत-आसियान संबंधों का विस्तार हुआ है।
भारत को 1992 में आसियान का क्षेत्रीय वार्ता साझेदार तथा 1995
में पूर्ण वार्ता साझेदार बनाया गया था। वर्तमान में भारत आसियान क्षेत्रीय फोरम का
सदस्य है तथा पूर्वी एशिया समुदाय के निर्माण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा
है।
(b) वेस्ट पॉलिसी (Look West Policy)-
भारत ने यह नीति वर्ष
2004 से अपनाई। पश्चिम एशियाई देशों के साथ संबंधों को सुदृढ़ करना इसका मूल उद्देश्य
रहा है। भारत ने अपने स्तर से इजरायल खाड़ी सहयोग परिषद तथा ईरान के साथ बेहतर संबंधों
की स्थापना को प्राथमिकता दी है। इस क्षेत्र के साथ अब तक बहुत अधिक सुदृढ़ संबंध नहीं
बन पाने का मुख्य कारण भारत पाकिस्तान के कटु संबंध हैं।
(c) लुक अफ्रीका पॉलिसी
(Look Africa Policy):-
भारत की अफ्रीका नीति
का निर्धारण सबसे पहले भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था। ने अफ्रीका
में रंगभेद की नीति का आरंभ से ही विरोध किया था। इस नीति के प्रमुख आयाम निम्न हैं-
- (a) आर्थिक सहयोग में
वृद्धि
- (b) अफ्रीका में रहने
वाले अनिवासी भारतीयों तथा भारतीय मूल के व्यक्तियों के हितों की रक्षा।
- (c) आतंकवाद के विरुद्ध
संघर्ष में पारस्परिक सहयोग।
- (d) शांति सुरक्षा तथा
स्थायित्व के प्रयास (e) अफ्रीकी सेना को भारतीय
सहयोग
लुक अफ्रीका नीति
की वजह से ही सन् 2008 में भारत अफ्रीका शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया।
(d) लुक लैटिन अमेरिका
पॉलिसी-
लैटिन अमेरिकी क्षेत्र न केवल आर्थिक संबंधों के विस्तार बल्कि भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सक्षम है। लुक लैटिन अमेरिका नीति की नींव 1991 में रखी गई थी। दक्षिण-दक्षिण सहयोग के प्रयासों ने इस नीति को और सुदृढ़ बनाया है।
भारत-ब्राजील-दक्षिण अफ्रीका (इटसा)
का गठन इस दिशा में किया गया एक सकारात्मक प्रयास कहा जा सकता है। हाल ही के वर्षों
में ब्राजील, वेनेजुएला, चिली, मैक्सिको आदि देशों के साथ भारत के संबंध अत्यंत सुदृढ़
हुए है। :
संघर्ष निवारण-
विवादों से उत्पन्न
संघर्ष की स्थिति को दूर करने की भारतीय रणनीति शांतिपूर्ण वार्ता है। बांग्लादेश,
नेपाल तथा पाकिस्तान, चीन आदि देशों के साथ विभिन्न विवादों को दूर करने के लिए भारत
ने शांति वार्ताओं को ही आधार बनाया है। अन्य देशों को भी भारत ने इसी आधार पर समर्थन
दिया है।
भारतीय विदेश नीति के समक्ष चुनौतियाँ
क्षेत्रीय शांति
एवं सुरक्षा :-
क्योंकि भारत के पड़ोसी
देशों में हाल ही में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं अतः भारत को विकास की दृष्टि से
दक्षिण एशिया, दक्षिणी पूर्वी एशिया और पश्चिमी एशिया में अपने संबंधों में सुधार लाना
महत्त्वपूर्ण हो गया है। नेपाल में माओवादियों का लोकतांत्रिकरण, भूटान में लोकतांत्रिक
चुनाव तथा पाकिस्तान में लोकतांत्रिक चुनाव हुए हैं।
नेपाल :-
भारत के लिए यह आवश्यक
हो गया है कि वह नेपाल में लोकतंत्र को समर्थन देते हुए नई संधि के माध्यम से अपने
संबंधों में सुधार करे। भारत को यह भी देखना है कि भारत में माओवादियों का विस्तार
नहीं हो। अत: भारत को घरेलू स्तर पर सुरक्षा प्रणाली को सुदृढ़ बनाते हुए नई नेपाल
सरकार के साथ सोमावर्ती जिलों में सुरक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिए।
भूटान-
भूटान लोकतांत्रिक
चुनावों के पश्चात यह आशा को जा सकती है कि आगामी वर्षों में भारत-भूटान संबंध और मधुर
बनेंगे। इस संदर्भ में भारत-भूटान नई मित्रता संधि में समकालीन विषयों को शामिल किया
गया है।
श्रीलंका-
श्रीलंका समस्या भारत
की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। ऐसी स्थिति में सैन्य शक्ति के प्रयोग पर नियंत्रण
रखते हुए समस्या के समाधान के लिए श्रीलंका सरकार को सहयोग व समर्थन दिया जाना चाहिए।
बांग्लादेश के संबंध में भारत की विदेश नीति में ऐसी रणनीति शामिल की जानी चाहिए जो
बांग्लादेश सरकार को विवादों के समाधान के लिए प्रेरित करे तथा सीमावर्ती क्षेत्रों
में सुरक्षात्मक कदम उठाने के लिए पारस्परिक अंतनिर्भरता दर्शाए एशिया प्रशांत क्षेत्र
में जापान और आस्ट्रेलिया के साथ रणनीतिक साझेदारी का प्रयास आपेक्षित है।
'लुक वेस्ट नीति'
के तहत भारत-इजरायल रणनीतिक साझेदारी और भारत-ईरान संबंधों में बेहतरी लाना भारत के
लिए महत्त्वपूर्ण है।
बड़ी शक्तियों के साथ संबंधों में सुधार:
-वर्तमान में बहुपक्षीयता
के विकास के साथ-साथ बड़ी शक्तियों के बीच सहयोगात्मक राजनीतिक संबंध भी स्थापित हो
रहे है। इसका मुख्य कारण यह भी है कि इनकी अर्थव्यवस्थाएँ अंतसंबंधित हो गई हैं। अपने
विकास के कारण भारत की पहचान बौद्धिक संपदा के आपूर्तिकर्ता और उपभोक्ता दोनों रूपों
में बनी है। ऐसी स्थिति में भारत के राजनीतिक तथा आर्थिक विकास के लिए लगभग सभी बड़ी
शक्तियों के साथ उसके संबंधों का सुदृढ़ होना अनिवार्य है।
सबसे पहले भारत-अमेरिकी संबंधों में हुए सुधार इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। द्विपक्षीय संबंधों का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी तथा परमाणु समझौता है।
भारत-अमेरिकी संबंध अब इस प्रकार विस्तृत हो चुके है कि इसने वास्तव में दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन का झुकाव भारत की और कर दिया है। यह स्थिति निश्चित रूप से भारत के हक में है लेकिन चीन और रूस के साथ समानान्तर रूप से संबंध बनाए रखना भारत के लिए एक चुनौती है।
इन संबंधों के
अतिरिक्त यूरोपीय संघ के साथ संबंधों को और प्रगाढ़ बनाना भी आवश्यक हो गया है। विशेषकर
जर्मनी और फ्रांस के साथ संबंधों में सुधार लाया जाना अपेक्षित है।
वैश्विक मुद्दों का समाधान :-
विश्व स्तर पर जो गंभीर मुद्दे विद्यमान है उनमें खाद्य, जल, ऊर्जा तथा पर्यावरण सुरक्षा के साथ-साथ आतंकवाद सबसे महत्त्वपूर्ण है। खाद्य समस्या को हल करने के लिए भारत में दूसरी हरित क्रांति लाए जाने की आवश्यकता है।
पेयजल की समस्या दूर करने हेतु पड़ौसियों के साथ
जल विवादों के समाधान हेतु विषय विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों अथवा अंतरराष्ट्रीय
संगठनों का सहयोग भी लिया जा सकता है। ऊर्जा समस्या को दूर करने के लिए भारत के लिए
आवश्यक है कि तेल और गैस पाइप लाइनों से संबंधित नीति का प्रयोग करने के अतिरिक्त ऊर्जा
के गैर परम्परागत स्त्रोतों के दोहन के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करे।
हाल हो के वर्षों
में पर्यावरण सुरक्षा विशेषकर जलवायु परिवर्तन का विषय अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गया
है। भारत ने पर्यावरण सुरक्षा के प्रति अपनी वचनबद्धता व्यक्त की है। आगामी वर्षों
में भी पर्यावरण मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सहमति बनने में भारत की भूमिका
महत्त्वपूर्ण होगी
पंडित जवाहर लाल नेहरू का विदेश नीति निर्माण में योगदान
पंडित जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के निर्माता थे। श्री नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 को इलाहाबाद हुआ। उनके पिता का नाम पंडित मोतीलाल नेहरू था। मोतीलाल नेहरू तत्कालीन भारत के जाने-माने बैरिस्टर थे। नेहरू को प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। सन् 1905 से सन् 1912 तक उन्हें इंग्लैण्ड में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा गया विज्ञान, राजनीति और साहित्य के अध्ययन के बाद सन् 1912 में वे बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण करके भारत आए।
इंग्लैण्ड में वे सिडनी वैब और वैट्सि वैब की फेबियन समाजवादी विचारधारा के सम्पर्क में आए बर्ट्रेण्ड रसेल और बर्नार्ड शॉ के विचारों का भी उन्होंने अध्ययन किया और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हुए। उन्होंने भारत आने के बाद भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। सन् 1946 में नेहरू के नेतृत्व में भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया गया।
15 अगस्त, 1947 को देश के स्वतंत्र होने पर वे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और सन्
1964 तक आजीवन इस पद पर बने रहे। 27 मई, 1964 को उनका निधन हो गया। भारत के प्रधानमंत्री
के रूप में उन्होंने विश्व में शांति, सद्भाव, सहयोग और सह-अस्तित्व के लिए महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया।
भारत की विदेश नीति में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका
भारत के पहले प्रधानमंत्री
जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय एजेंडा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई। वे प्रधानमंत्री
के साथ-साथ विदेश मंत्री भी थे। प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के रूप में 1946 से
1964 तक उन्होंने भारत की विदेश नीति की रचना और क्रियान्वयन पर गहरा प्रभाव डाला।
नेहरू की विदेश नीति के तीन बड़े उद्देश्य थे।
- कठिन संघर्ष से प्राप्त सम्प्रभुता को बचाए रखना।
- क्षेत्रीय अखंडता को बनाए रखना और
- तेज रफ्तार से आर्थिक विकास करना। उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नेहरू द्वारा अपनाई विदेश नीति का अध्ययन निम्न बिंदुओं में किया जा सकता है.-
गुट निरपेक्षता की नीति-
नेहरू ने उपरोक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई। आजाद भारत की विदेश नीति में शांतिपूर्ण विश्व का सपना था और इसके लिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। शीतयुद्ध के समय तथा सोवियत संघ ने इसके जवाब में 'वारसा पैक्ट' नामक संधि संगठन बनाया था। भारत ने इन स ने 'नाटो' संगठनों से अपने को दूर रखते हुए गुटनिरपेक्षता की नीति को आदर्श माना। जवाहरलाल नेहरू ने श्री के वी.एस. मेनन को लिखे एक पत्र में कहा था ' आमतौर पर हमारी नीति साकत की राजनीति से अपने को अलग रखने और महाशक्तियों में एक खेमे के विरुद्ध दूसरे खेमे में शामिल होने की है।
आज दो अग्रणी खेमे रूस और अमेरिका-ब्रिटेन
के हैं। हमें दोनों के साथ दोस्ताना संबंध रखता है साथ ही उनके खेमे में शामिल भी नहीं
होता है। दोनों गुटों से पृथक रहकर ही युद्ध और तनाव की सभी स्थितियों का विरोध किया
जा सकता था। गुटनिरपेक्षता ने विकासशील राष्ट्रों को आत्मसम्मान और प्रभुसत्ता
की रक्षा के साथ-साथ विकास का अवसर भी प्रदान किया। अपनी इसी उपयोगिता के कारण यह नीति
अफ्रीका एवं एशिया में लोकप्रिय हुई और इसने गुटनिरपेक्ष स आंदोलन का रूप धारण कर लिया।
गुटनिरपेक्षता के कारण हो भारत ने नेहरू के नेतृत्व में कोरिया, साइप्रस, कांगो आदि विवादों में शान्ति स्थापित करने वाले देश की भूमिका निभाई। गुटनिरपेक्षता अवसरवादी या निषेधात्मक नीति नहीं है। नेहरू का कहना था कि जब स्वतंत्रता के लिए संकट उपस्थित हो, न्याय को आघात पहुंचे और आक्रमण हो, तब हम न तो तटस्थ रह सकते है और न ही तटस्थ रहेंगे।
गुटनिरपेक्षता
शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर आधारित विदेश नीति है। नीति का महत्व इस बद से प्रकट होता
है कि दोनों ही महाशक्तियों ने गुट निरपेक्ष देशों को बिना किसी शर्त के आर्थिक और
तकनीकी सहायत देना स्वीकार किया था। नेहरू की गुट निरपेक्षता का मूल और सर्वप्रथम प्रेरक
तत्व था "शांति अपने देश के लिए ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व के लिए।"
एफ्रो एशियाई एकता-
भारत के आकार, अवस्थिति और शक्ति संभावना को भाँपकर नेहरू ने विश्व के मामलों खासकर एशियाई मामलों में भारत के लिए बड़ी भूमिका निभाने का स्वप्न देखा था। नेहरूजी के दौर में भारत ने एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतंत्र देशों के साथ सम्पर्क बनाए।
1940 और 1950 के दशकों में नेहरू बड़े मुखर स्वर में एशियाई एकता की पैरोकारी करने रहे। नेहरू की अगुवाई में भारत में मार्च, 1947 में ही एशियाई संबंध सम्मेलन का आयोजन किया। भारत ने इंडोनेशिया की आजादी के लिए भरपूर प्रयास किए भारत चाहता था कि इंडोनेशिया इच औपनिवेशिक शासन में यथासंभव शीघ्र मुक्त हो जाए।
इसके लिए भारत ने 1949 में इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन किया भारत उपनिवेशोकरण की प्रक्रिया का कट्टर विरोधी था और उसने पूरी दृढ़ता से नस्लवाद का, खासकर दक्षिण अफ्रीका में जारी रंगभेद का विरोध किया। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में इंडोनेशिया के एक शहर बांडुंग में 1955 में एफ्रो एशियाई सम्मेलन आयोजित किया गया।
उस समय इंडोनेशिया के प्रथम राष्ट्रपति सुकर्णो व धाना के प्रथम प्रधानमंत्री
वसे एनक्रमा ने गुटनिरपेक्षता की नीति का जोरदार समर्थन किया था।
भारत और शीतयुद्ध:-
गुटनिरपेक्ष आंदोलन
के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत ने दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। एक
स्तर पर भारत ने सजग और सचेत रूप से अपने को दोनों महाशक्तियों की खेमेबंदी से अलग
रखा। दूसरे, भारत ने उपनिवेशों के चंगुल से मुक्त हुए नवस्वतंत्र देशों के महाशक्तियों
के खेमे में जाने का पुरजोर विरोध किया। शीतयुद्ध के दौरान भारत ने लगातार उन क्षेत्रीय
और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाये रखने की कोशिश की, जो अमेरिका अथवा सोविया
संघ के खेमे से नहीं जुड़े थे। नेहरू ने 'स्वतंत्र और परस्पर सहयोगी' राष्ट्रों के
एक सच्चे राष्ट्रकुल गहरा विश्वास जताया जो शीतयुद्ध को खत्म करने में न सही, पर उसकी
जकड़ ढीली करने में ही सकारात्मक भूमिका निभायें।
पंचशील : 24 April 1954
पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों के विपरीत आजाद भारत ने चीन के साथ अपने रिश्तों की शुरुआत बड़े दोस्ताना ढंग से को। चीनी क्रांति 1949 में हुई थी। इस क्रांति के बाद भारत, चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने वाले पहले देशों में एक था। पश्चिमी प्रभुत्व के चंगुल से निकलने वाले इस देश को लेकर नेहरू के हृदय में गहरे भाव थे और उन्होंने अंतरराष्ट्रीय फलक पर इस सरकार की मदद की।
शांतिपूर्ण, सहअस्तित्व के 5 सिद्धान्तों यानी पंचशील की घोषणा भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और चीन के प्रमुख चाऊ एनलाई ने संयुक्त रूप से 29 अप्रैल, 1954 में की। यह घोषणा उस समझौते के अंग के रूप में की, जो तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता की स्थिति में किया गया था।
पंचशील के सिद्धान्त से राष्ट्रों के संदर्भ में नेहरू की आदर्श मानवतावादी भावनाओं का परिचय मिलता है। 'पंचशील' गौतम बुद्ध का शब्द है जिसमें शांति, दया तथा परोपकार की भावना सम्मिलित है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि नेहरू का केवल भारत के लिए ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के लिए अविस्मरणीय योगदान रहा है।
नेहरू को एक चिंतक, एक राष्ट्रीय नेता और एक शांति दूत के रूप में याद किया जाता है। वे मानव सभ्यता को परमाणु युद्ध के विनाश से बचाना चाहते थे और इसलिए तनाव व संघर्ष को कम करने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास करते थे।
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