विश्व मृदा
मृदा-निर्माण Soil Formation
मिट्टी खनिज तथा जैव तत्वों का वह गत्यात्मक प्राकृतिक मिश्रण है, जिसमें पौधों को उत्पन्न करने की क्षमता होती है। यह धरातल के ऊपरी भाग में पायी जाती है। यह एक नवीनीकरण अयोग्य संसाधन माना जाता है क्योंकि इसके निर्माण में एक लंबी अवधि लगती है। यद्यपि मिट्टी स्थलीय धरातल पर एक पतली पर्त के रूप में ही मौजूद है, फिर भी मूल प्राकृतिक संसाधन के रूप में यह मनुष्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। वस्तुतः जैवमंडल में मिट्टी का एक महत्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न स्थानों की मिट्टी में भिन्नता है। अतः मिट्टी बनने की प्रक्रिया तथा उसके प्रकारों का अध्ययन भी भूगोलवेत्ताओं के लिए महत्वपूर्ण है।
भूमि पर प्रत्यक्ष रूप में अनाश्रित लोगों के लिए मृदा एक जड़, एक रूप, अनेक रंगों का अरोचक पदार्थ है, जिसमें पौधे उगते रहते हैं। वास्तव में सच्चाई इससे अधिक दूर नहीं हो सकती। -ब्रायन नैप (मृदा प्रक्रियाएँ-1979)
मिट्टी कई ठोस, तरल और गैसीय पदार्थों का एक मिश्रण है। यह भू-पर्पटी के सबसे ऊपरी भाग में पायी जाती है। इसमें जड़ और चेतन, दोनों तरह के पदार्थ पाये जाते हैं। खनिजों के कण, पौधों, के सड़े अंश, कीटाणुओं तथा इनके जैविक पदार्थों पर पलने वाले अनगिनत जीवाणुओं से ही मिट्टी का निर्माण हुआ है।
मिट्टी में जल भी होता है, जहाँ से पौधों की जड़ें आर्द्रता प्राप्त करती हैं। मिट्टी के रंध्रों में हवा भी रहती है जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है। इसके अतिरिक्त उसमें ऑक्सीजन और नाइट्रोजन भी होती है
मिट्टी में ऊपर बतायी गयी सभी चीजों का संयोजन ही पौधों को उनके विकास के लिए पोषक तत्व प्रदान करता है। पौधों के सूख जाने या सड़ जाने के बाद उनका पौष्टिक तत्व पुनः मिट्टी में मिल जाता है और जीवित पौधों द्वारा फिर से इस्तेमाल किया जाता है। पौष्टिक तत्वों का यह चक्र, जो युगों से चलता आ रहा है, मिट्टी को मनुष्य के प्रयोग के लिए हमेशा ताजा और जिन्दा बनाये रहता है।
मृदा की परिभाषा "सजीव पदार्थ युक्त पौधों का पोषण करनेवाली या कर सकने वाली धरातल की प्राकृतिक परत को मृदा कहते हैं।"— ए. एन. स्टैहलर
धरातलीय चट्टानों के अपक्षय, जलवायु, पौधों और करोड़ों भूमिगत कीटाणुओं तथा कृमियों के बीच होने वाले आपसी क्रिया कलाप का अंतिम परिणाम ही मिट्टी है। इन भौतिक, रासायनिक तथा जैविक प्रक्रियाओं के एक लंबी अवधि तक कार्यरत रहने से मिट्टी की परतों का निर्माण होता है।
चट्टानों के प्रकार, जमीन की भौतिक विशेषताओं, जलवायु तथा वनस्पतियों आदि के संबंध में एक स्थान और दूसरे स्थान में अन्तर होता है। यही कारण है कि पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न प्रकार की मिट्टी पायी जाती है।
मिट्टी
में विभिन्नताओं के कारण ही हमें विभिन्न प्रकार की फसलें, घास तथा पेड़-पौधे प्राप्त
होते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में एक से दो सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की परत बनने में
लगभग दो शताब्दियाँ लग जाती हैं, किन्तु यह बनी-बनायी मिट्टी कुछ ही समय में नष्ट हो
सकती है। अब यह देखना मानव का कर्तव्य है कि यह बहुमूल्य पदार्थ हमारी गलतियों से कहीं
नष्ट न हो जाए।
ढालू भूमि से जल की तेज धारा इस बहुमूल्य मिट्टी को शीघ्र ही बहा सकती है। जिन क्षेत्रों में वनस्पति की कमी होती है वहाँ तो यह कार्य और भी तेजी से होता है। यदि मिट्टी हल्की और ढीली है तो तेज हवा इसे शीघ्र ही बहाव ढालू भूमि से मिट्टी की परतों को या तो वहा ले जाती है या उसमें गहरी नालियाँ बना देती है।
ऊपर बतायी गयी विधियों से मिट्टी के नष्ट होने को मृदा अपरदन कहते हैं। वैसे तो संसार के सभी क्षेत्रों में मिट्टी का कटाव होता रहता है, किन्तु विषुवतीय और उष्णकटिबंधीय प्रदेशों के अतिवृष्टि वाले और अतिशुष्क क्षेत्रों के बाहर अन्य क्षेत्रों में यह खास खास जगहों तक ही सीमित है। एक लम्बे अर्से से मानव द्वारा मिट्टी के दुरुपयोग ने मृदा अपरदन की इस प्रक्रिया को काफी बढ़ावा दिया है, जिसका दुष्परिणाम मानव स्वयं भुगत रहा है। हमारे देश में ऐसे कई क्षेत्र है जहाँ कृषि योग्य मिट्टी की परतें कटकर नष्ट हो चुकी हैं।
भारत में गंगा के मैदान जैसी समतल भूमि पर भी यदि कृषि की सही विधियाँ नहीं अपनायी गयीं तो यहाँ की मिट्टी के पौष्टिक पदार्थ नष्ट हो जायेंगे और इसकी उत्पादन क्षमता कम हो जायेगी। अस्तु मानव का यह कर्त्तव्य है कि वह मृदा के संरक्षण के लिए सभी संभव उपाय करे।
यदि मिट्टी एक बार नष्ट हो जाए
या पौष्टिक पदार्थों की कमी हो जाए तो कृषि और वनस्पति के लिए वह लगभग हमेशा के लिए
खत्म हो जाती है। यही कारण है कि मिट्टी को पुनर्नवीन न होनेवाला संसाधन माना जाता
है।
मृदा परिच्छेदिका Soil Profile
प्रारंभिक अवस्था में मिट्टी चट्टानों के अपक्षय की उपज होती है। उस समय इसमें ताजे अपक्षयित पदार्थ ही होते हैं, जैविक पदार्थ नहीं। नदी, वायु अथवा हिमानी द्वारा इन पदार्थों का परिवहन होता है और इस प्रक्रिया में महीन अवसादों में बदल जाते हैं। मृदा परिच्छेदिका में चट्टानों से प्राप्त अपक्षयित पदार्थ ही होते हैं। किन्तु आधारी चट्टान, जिस पर मिट्टी जमा होती है, स्वयं इस परिच्छेदिका का हिस्सा नहीं होती। इस परिच्छेदिका में क्षतिज परतें भी नहीं होती जिन्हें सस्तर स्थिति (होराइजस) कहते हैं। वास्तविक मृदा परिच्छेदिका का विकास तब होता है जब अपक्षयित पदार्थ बहुत समय तक एक ही स्थान पर पड़े रहें।
आधारी चट्टान के अपक्षय की मंद प्रक्रिया और उसमें जैविक पदार्थ की मिलावट के दौरान एक के ऊपर एक क्षैतिज परतें बनती हैं। मृदा-परिच्छेदिका में क्रमशः तीन मुख्य संस्तर स्थितियाँ होती हैं। वास्तविक मृदा सबसे ऊपर, उसके नीचे उपमृदा और सबसे नीचे आधारी चट्टान ।
भौतिक और रासायनिक संघटन तथा जैविक अंश के आधार पर मृदा का प्रत्येक संस्तर दूसरों बिल्कुल भिन्न होता है। मृदा-निर्माण की लम्बी प्रक्रिया के दौरान इस भिन्नता का विकास होता है। वास्तव में मृदा परिच्छेदिका में 'क', 'ख' और 'ग' तीन ही संस्तर स्थितियाँ होती हैं।
प्रत्येक संस्तर स्थिति कणों के आकार और रंग में एक-दूसरे से सर्वथा
भिन्न होती है। इनमें से 'क' और 'ख' संस्तर ही वास्तविक मृदा का प्रतिनिधित्व करते
हैं इन्हें अंग्रेजी में 'solum' कहते हैं। 'ग' अवमृदा या अपक्षीण आधार शैल है । यही मृदा का
मूल कच्चा पदार्थ है ।
1. संस्तर स्थिति ‘क' :
यह मृदा परिच्छेदिका की सबसे
ऊपर की संस्तर स्थिति है। इस संस्तर स्थिति में महीन कण और जैव-पदार्थ होते हैं। जैव-पदार्थ
पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं के सड़े-गले अंश के रूप में होता है, जिसे ह्यूमस कहते हैं
।
2. संस्तर स्थिति 'ख' :
'क' के नीचे 'ख' संस्तर स्थिति
होती है । 'ख' संस्तर स्थिति में जल के रिसाव के द्वारा 'क' संस्तर स्थिति से लाये
गये पदार्थ जमा होते हैं। यह भी महीन कणों से निर्मित होती है। लेकिन वे अधिक 'सुसंहत'
(compact) होते हैं।
3. संस्तर स्थिति 'ग' :
इसमें अंशतः अपक्षीण और विखंडित
चट्टानें होती हैं, जो अन्ततोगत्वा मृदा की 'ख' संस्तर स्थिति का भाग बन जाती है। इसे
अवमृदा कहते हैं। अपक्षय से अप्रभावित आधार शैल के मृदा परिच्छेदिका का अंग नहीं माना
जाता है, लेकिन जहाँ कहीं इसे प्रदर्शित किया जाता है, तो यह 'घ' संस्तर स्थिति में
दिखाया जाता है ।
किसी भी आदर्श मृदा परिच्छेदिका में निम्न विशेषताएँ पायी जाती हैं
- इसमें ऊपर से नीचे की ओर जैव-पदार्थों, कीटाणुओं व जीवाणुओं की संख्या घटती जाती है।
- इसमें गहराई के साथ वायु की मात्रा घटती जाती है।
- इसमें गहराई के साथ खनिजों की मात्रा व संख्या बढ़ती जाती है।
- इसमें ऊपर से नीचे जाने पर जल की मात्रा निश्चित नहीं होती; कहीं घटती है, कहीं बढ़ती है।
मृदा के गुण :
जल, वायु, खनिज और जैव-पदार्थ मृदा के प्रमुख अंग
हैं। ये सभी एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं। इनके पारस्परिक संबंधों के कारण
मृदा में विभिन्न गुण पैदा हो जाते हैं, जिससे विभिन्न प्रकार की मृदाएँ बन जाती हैं।मृदा
के इन गुणों को निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है-
मृदा के गुण
भौतिक गुण |
रासायनिक गुण |
रंग |
अम्लीय |
गठन |
उदासीन |
संरचना |
क्षारीय |
प्रत्येक प्रकार की मिट्टी में रंग, गठन और संरचना सदृश्य भौतिक गुण होते हैं। ये भौतिक गुण बहुत हद तक उस आधारी चट्टान के स्वभाव पर निर्भर करते हैं जिससे इस मिट्टी का निर्माण हुआ है। रंग अपने-आप में महत्वपूर्ण नहीं होता । किन्तु इससे यह पता चलता है कि मिट्टी का निर्माण किस वस्तु से और कैसे हुआ है। मिट्टी के गठन से उसमें मिश्रित विभिन्न हुआ है
आकार-प्रकार के कणों का पता चलता है; जैसे-बजरी, बालू, चिकनी मिट्टी तथा गाद मिट्टी में जब बालू के कणों का अनुपात अधिक होता है तो इसे बलुई मिट्टी कहते हैं। चिकनी मिट्टी में मृत्तिका का अनुपात अधिक होता है और बालू के कण कम होते हैं।
वह मिट्टी, जिसमें मृत्तिका, बालू और गाद के अनुपात लगभग बराबर होते हैं, दोमट मिट्टी कही जाती है। दोमट मिट्टी को बालू, मृत्तिका और गाद की अधिकता के आधार पर क्रमशः बलुई दोमट, मृत्तिका दोमट तथा गाद दोमट कहते हैं ।
मिट्टी के गठन से यह भी पता चलता है कि मिट्टी के अंदर कणों के बीच के रिक्त स्थान या रंध्र छोटे हैं या बड़े चिकनी मिट्टी में रंध्र बड़े ही सूक्ष्म होते हैं। अतः इसमें जल बड़ी ही धीमी गति से रिसता है। बलुई मिट्टी में ये रंध्र बड़े होते हैं। अतः इसमें जल का रिसाव तेज होता है।
दोमट मिट्टी, जिसमें तीनों का मिश्रण होता है, पौधों की उपज के लिए सबसे अच्छी होती है। इसकी जुताई भी आसान होती है। जुताई के उद्देश्य से बलुई मिट्टी को हल्की और स्थान बदलने वाली समझा जाता है, जबकि चिकनी मिट्टी को भारी मिट्टी भी कहते हैं।
चिकनी मिट्टी भींगने
पर चिपचिपी हो जाती है और सूखने पर इसमें दरारें पड़ जाती हैं। दोमट मिट्टी में बलुई
दोमट किसानों द्वारा अधिक पसंद की जाती है।
ग्रेनाइट
फेल्सपार मुलायम खनिज |
अभ्रक |
स्फटिक कठोर खनिज |
मुख्यतः रासायनिक अपक्षय
से प्रभावित |
|
मुख्यतः भौतिक (यौगिक) अपक्षय
से प्रभावित |
मुख्यतः मृत्तिका |
|
मुख्यतः बालू और गाद का
निर्माण |
गौण खनिज |
|
प्राथमिक खनिज |
अपेक्षाकृत महीन कणों का
गठन |
|
→ अपेक्षाकृत मोटे
कणों का गठन |
सामान्यतः घटिया जल निकास |
|
सामान्यतः अच्छा जल निकास |
अपेक्षाकृत गहरी मृदा |
|
→ अपेक्षाकृत कम
गहरी मृदा |
→ सामान्यतः अधिक
पोषक तत्व |
|
अपेक्षाकृत कम पोषक तत्व |
मृदा संरचना से तात्पर्य यह है कि कृषि के लिए जोते जाने पर मिट्टी के कणों की व्यवस्था कैसी रहती है। इन कणों के समूहन के आधार पर इसकी संरचना दानेदार, भुरभुरी, खंडी, चपटी, प्लास्टिक या स्तंभी हो सकती है। मृदा संरचना मृदा के अपरदन, उसकी जुताई में आसानी या कठिनाई तथा उसकी नमी शोषण की क्षमता को प्रभावित करती है ।
1.नमी जल :
पौधे मृदा से पोषक तत्वों को तभी ग्रहण करते हैं,
जब वे घोल रूप (पानी में घुले) में हो
(ii) खनिज-कण : मृत्तिका और बालू में सिलिका, लोहा, मैग्नेशियम,
पोटाशियम, कैल्शियम जैसे खनिज होते हैं। ये पौधों की अच्छी वृद्धि हेतु अत्यावश्यक
हैं।
(iii) वायु : मिट्टी के रंध्रों में संचरण करने वाली ऑक्सीजन
मृदा में विद्यमान जीवों के सांस लेने के लिए अनिवार्य है ।
(iv) ह्यूमस (जैव-पदार्थ) : यह अपघटित वनस्पतियों, जीवाणुओं और केंचुओं जैसे जैव-पदार्थों
से बनता है। यह पौधों की स्वस्थ वृद्धि हेतु नाइट्रोजन प्रदान करता है।
मृदा के अलग-अलग प्रकारों अपने खास रासायनिक गुण होते हैं । इसी आधार पर उन्हें अम्लीय, उदासीन या क्षारीय कहते हैं। जिस मिट्टी में चूने की मात्रा कम होती है उसे अम्लीय तथा जिसमें ज्यादा होती है उसे क्षारीय मृदा कहते हैं।
मिट्टी में उपस्थित जल में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जीवाणुओं के सड़ने से उत्पन्न अम्ल के अंश घुले रहते हैं। चट्टानों के रासायनिक अपक्षय के समय घुलनशील लवणों की उत्पत्ति होती है। मिट्टी के रंध्र जब जल से संतृप्त नहीं होते, तब उसमें वायुमंडलीय गैस भरी होती हैं।
जीवों और वनस्पतियों के सड़े अवशेषों से ह्यूमस
का निर्माण होता है, जिससे मिट्टी का रंग काला या गाढ़ा भूरा हो जाता है। प्राकृतिक
वनस्पति भी मिट्टी के रासायनिक गुणों पर निर्भर करती है। बहुत-सी वनस्पतियाँ जो अम्लीय
मिट्टी पसंद करती हैं, उस मिट्टी में नहीं उग सकतीं जिसमें चुने की मात्रा अधिक हो,
अर्थात् वे क्षारीय प्रकृति की हों।
PH: मिट्टी की अम्लता और क्षारता को नापने वाला पैमाना
उदासीन (neutral) मृदा का मान '7' होता है। इससे कम मान वाली मृदा अम्लीय तथा अधिक मान वाली क्षारीय
मृदा होती है।
मृदा-निर्माण के कारक Soil forming factors
मृदा- निर्माण या मृदाजनन (pedogenesis) सर्वप्रथम अपक्षय पर निर्भर करता है। यह अपक्षयी प्रवार ही मृदा निर्माण का मूल निवेश होता है। सर्वप्रथम अपक्षयित प्रवार या लाये गये पदार्थों के निक्षेप, बैक्टीरिया या अन्य निकृष्ट पौधे जैसे लाइकेन व काई द्वारा उपनिवेशित किये जाते हैं।
निक्षेप एवं प्रवार के अन्दर कई गौण जीव भी आश्रय प्राप्त कर लेते हैं। पौधों एवं जीव-जन्तुओं के मृत अवशेष ह्यूमस के एकत्रीकरण में सहायक होते हैं। प्रारंभ में गौण घास व फर्न्स की वृद्धि हो सकती है। बाद में पक्षियों एवं पवन द्वारा लाये गये बीजों से वृक्ष एवं झाड़ियों में वृद्धि होने लगती है। पौधों की जड़ें नीचे तक घुस जाती हैं।
बिल बनाकर रहने वाले जीव-कणों (particles) को ऊपर लाते हैं, जिससे पदार्थों का पुंज (अंबार) छिद्रमय एवं स्पंज की तरह हो जाता है। इस प्रकार जल धारण करने की क्षमता, वायु के प्रवेश आदि के कारण अंततः परिपक्व, खनिज एवं जीव उत्पाद-युक्त मृदा का निर्माण होता है।
मृदा- निर्माण के पाँच मूल कारक होते हैं:
- आधारी चट्टान अथवा जनक पदार्थ अथवा मूल पदार्थ (शैलें),
- स्थानीय जलवायु,
- जैविक पदार्थ या जैविक क्रियाएँ,
ऊँचाई और उच्चावच अर्थात् स्थलाकृति एवं समय (मिट्टी के विकास की अवधि) । बड़े क्षेत्रीय पैमाने पर इन पाँचों में पहले दो कारक अन्य की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हैं। जलवायु और जैविक कारकों को क्रियाशील कारक कहते हैं जबकि जनक पदार्थ, स्थलाकृति और विकास की अवधि को निष्क्रिय कारक कहते हैं। उपर्युक्त पाँच मूल कारकों के अलावे छठे कारक के रूप में मानव प्रभाव को भी रखा जा सकता है।
मृदा -निर्माण के
कारकों को निम्न सूत्र द्वारा भी अभिव्यक्त किया जा सकता है
मृदा (प्रतिफल है)
= जनक पदार्थ + स्थानीय जलवायु + जैविक पदार्थ + उच्चावच + समय + मानव प्रभाव
यच जेनी ने 1941 में मृदा के निर्माण को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्नलिखित समीकरण के रूप में प्रस्तुत किया था "मृदा, जलवायु, जीवों, उच्चावच, आधार शैल और समय का प्रतिफल है।अर्थात् s=f (cl.o.r.p.t.) " यहाँ पर s= मृदा परिच्छेदिका (soil profile) f=प्रतिफल है (is function of)
- Cl= जलवायु (climate)
- O=जैविक कारक (organism) –
- R= उच्चावच (relief)
- P= आधार शैल (parent rock)
- t= समय (time)
सामान्यतः मृदा निर्माण के पाँच कारकों का वर्णन निम्न प्रकार से है
1. आधारी चट्टान या जनक पदार्थ या मूल पदार्थ (Parent (material):
मिट्टी के नीचे स्थित चट्टानी संस्तर को जनक पदार्थ कहते हैं, क्योंकि इसी से मृदा का निर्माण होता है। किन्तु यह जरूरी नहीं है कि किसी भी क्षेत्र की मिट्टी उसी चट्टानी संस्तर पर स्थित हो जिससे वह बनी है।
जनक पदार्थ विखंडित होकर यांत्रिक, रासायनिक तथा जैविक कारकों के प्रभाव से धीरे-धीरे अपक्षयित होते रहते हैं। मिट्टी में अजैविक खनिज कण जनक पदार्थ से ही मिलते हैं। यूं तो तीनों प्रकार की चट्टानें (आग्नेय, परतदार व कायांतरित) मिट्टी को अजैविक खनिज देती हैं, किन्तु ये सबसे ज्यादा अवसादी चट्टानों से प्राप्त होते हैं। यांत्रिक तथा रासायनिक विधियों से होनेवाले अपक्षय की दरों में अंतर होता है और यह चट्टानी संरचना, उसकी कठोरता और जलवायु पर निर्भर करती है।
कुछ चट्टानें जल्दी ही अपक्षयित हो जाती हैं और कुछ धीमी गति से इन्हीं गुणों के कारण शैल चट्टानें बढ़िया मृदा उत्पादक तथा चूना पत्थर जैसी चट्टानें घटिया मृदा उत्पादक है।
अपक्षय की गति जितनी ही अधिक
होगी (जैसा कि उष्ण और आर्द्र जलवायु वाले प्रदेशों में होता है) उतनी ही तेज गति से
मृदा का निर्माण होगा।
2. जलवायु (Climate)
जलवायु मृदा-निर्माण में एक महत्वपूर्ण सक्रिय कारक है। मृदा के विकास में संलग्न जलवायवी तत्वों में प्रमुख है— (क) प्रवणता, वर्षा एवं वाष्पीकरण की वारंवारता व अवधि तथा आर्द्रता और (ख) तापक्रम में मौसमी एवं दैनिक भिन्नता मृदा-निर्माण में जलवायु इतना प्रमुख कारक है कि एक लंबी अवधि में जनक पदार्थों के कारण उत्पन्न विभिन्नताओं को यह बहुत हद तक कम कर देती है।
अस्तु, एक ही जलवायु वाले क्षेत्र में दो भिन्न प्रकार के जनक पदार्थ एक ही प्रकार की मिट्टी का निर्माण कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार, एक ही तरह के जनक पदार्थ दो भिन्न जलवायु प्रदेशों में भिन्न प्रकार की मिट्टी विकसित कर सकते हैं।
रवेदार ग्रेनाइट चट्टानें, मॉनसूनी प्रदेश के आई भागों में लैटेराइट मिट्टी का और शुष्क किनारों पर लैटेराइट से भिन्न प्रकार की मिट्टी का निर्माण करती है। मॉनसूनी जलवायु की गर्मी तथा आई और शुष्क मौसमों का अंतराल ही इसके मूल कारण है। ग्रीष्म ऋतु की तेज गर्मी और कम वर्षा से काली मिट्टी का निर्माण होता है, जिस पर जनक पदार्थों का कोई खास असर नहीं होता है।
इस तरह की मिट्टी आप तमिलनाडु के कुछ जिलो में देख सकते हैं। थार मरुस्थल में ग्रेनाइट और बालू-पत्थर दोनों से ही शुष्क जलवायु के कारण बलुई मिट्टी का निर्माण होता है। इस मिट्टी में जैविक पदार्थ बहुत ही कम मात्रा में होते हैं।
अपक्षय की किस्म तथा उसका प्रभाव, चट्टानों में रिसने
वाले जल की मात्रा और उन पर कार्य करने वाले जैविक पदार्थों की किस्म, ये सभी तापमान
और वर्षा के ऋतुवत वितरण पर निर्भर करते हैं।
3. जैविक क्रियाएँ (Biological activities):
वनस्पति और जीव, जिनमें पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, घास, काई, जीवाणु तथा जानवर शामिल हैं, किसी नई मिट्टी को प्रौढ़ अवस्था में बदलने में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। मृत पौधे मृदा में ह्यूमस भरपूर बनाते हैं जो जीवाणुओं जैसे सूक्ष्म जीवों द्वारा उपभोग किये जाते हैं।
आर्द्र उष्ण कटिबंधीय जलवायु में जीवाणुओं का कार्य इतना तेज होता है कि वे ह्यूमस के अधिकांश भाग का उपयोग कर लेते हैं और मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है। ठंढी जलवायु में जीवाणुओं की कार्यकुशलता सीमित हो जाती है, अतः मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा अधिक होती है।
ये जीवाणु नाइट्रोजन को किसी ऐसे रासायनिक यौगिक में बदल देते हैं जिसका उपयोग पौधे कर सकें। यही कारण है कि जीवाणुओं को नाइट्रोजन यौगिकीकरण का कारक कहा जाता है। ह्यूमस मिट्टी को उर्वरक बनाता है और खनिजों का अपक्षय तथा मिट्टी बनाने की प्रक्रि या को तेज करता है।
कृमि सदृश्य सूक्ष्म जीव करोड़ों की
संख्या में मिट्टी में रहते हैं। ये मृदा के कणों को बारीक बनाते हैं और उसमें खनिजों
और जैव पदार्थों को मिलाते हैं। चींटी, दीमक, चूहे तथा कुछ पक्षी जैसे जीव जो बिल बनाते
हैं, वे धरातलीय मिट्टी को ऊपर से नीचे और उप मृदा को नीचे से ऊपर करते रहते हैं। मिट्टी
के इन दो मुख्य संस्तरों के मिश्रण से मिट्टी के गठन और वायु-मिश्रण में सुधार होता
है।
4. स्थलाकृति / उच्चावच (Topography) :
स्थलाकृति भी मिट्टी के जमाव, उसके अपरदन तथा जल प्रवाह की गति पर प्रभाव डालती है। तीव्र ढाल वाली चट्टान पर एक पतली पत वाली मोटी मिट्टी बनती है जिसे अवशिष्ट मृदा कहते हैं। ऊंचाई और दाल की प्रकृति भी अपरदन की दर तथा जल प्रवाह को प्रभावित करती है।
पहाड़ी ढालों से अधिकांश मिट्टी नदी, हिमानी तथा पवन द्वारा परिवर्तित होकर जलोढ़ के रूप में नदी घाटियों के तल पर अथवा समतल भूमि पर पहुंच जाती है। इस प्रकार की परिवहित मिट्टी बड़ी उपजाऊ होती है, क्योंकि यह एक बड़े क्षेत्र में फैली कई प्रकार की चट्टानों से बनी होती है।
समतल भूमि पर मिट्टी का यह जमाव एक लंबी अवधि तक निर्वाध होता रहता है, जिससे वहाँ इसकी परतें काफी मोटी हो जाती। हैं। पहाड़ी ढालों की अपेक्षा यहाँ इसके अपरदन की गति भी बहुत कम होती है। ऐसे समतल भूमि की मिट्टी में जल प्रवाह भी बहुत कम होता है, क्योंकि बाढ़ के समय इसमें अधिक पानी इकट्ठा होता है। मंद ढालों पर जनक पदार्थ से नयी मिट्टी बनती है।
किन्तु मृदा अपरदन द्वारा नष्ट हुई मिट्टी का संतुलन बनाने में बहुत समय लगता है। नदियों की ताजी जलोढ़ मिट्टी और हिमानी द्वारा निक्षेपित गोलाश्मी मिट्टी युवा अवस्था की मिट्टियाँ हैं। इनमें जनक पदार्थ का नियंत्रण अधिक होता है और मृदा परिच्छेदिका का बहुत ही कम विकास होता है।
प्रौढ मिट्टियों का
विकास एक लंबी अवधि के बाद हो पाता है। इसमें जलवायु और जैविक पदार्थों का प्रभाव स्पष्ट
दिखता है।
5. समय / कालावधि (Time):
मृदा-निर्माण में समय तीसरा महत्वपूर्ण कारक है। मृदा-निर्माण प्रक्रियाओं के प्रचलन
में लगने वाले समय (काल) की अवधि मृदा-निर्माण की परिपक्वता एवं उसके परिच्छेदिका
(profile) का विकास निर्धारण
करती है।
मृदा-निर्माण की अवस्थाएँ
मृदा की परतों में
निरंतर होने वाले भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तनों से ही मृदा बनती है। प्रथम अवस्था अपक्षय के परिणामस्वरूप नग्न
चट्टानें धरातल के निकट विखंडित होने लगती हैं। अपक्षय भौतिक या रासायनिक किसी भी प्रकार
का हो सकता है।
द्वितीय अवस्था :
जैव परत का विकास होता है। जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म
जीव पौधों के अवशेषों और जैव पदार्थों का अपघटन शुरू कर देते हैं। इससे ह्यूमस बनता
है। अपघटन की प्रक्रिया में पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज तत्वों को मुक्त करते
हैं।
तृतीय अवस्था:
- पदार्थों में जल के रिसाव से खनिज तत्वों का वितरण होता है और अन्ततोगत्वा मिट्टी का निर्माण होता है।
- सुविकसित मृदा का निर्माण तभी होता है, जब शैल के अपक्षीण कण एक ही स्थान पर एक लंबी अवधि तक एक ही स्थिति में पड़े रहें।
- मृदा के निर्माण की प्रक्रिया अत्यंत धीमी है। कृषि योग्य उपयुक्त मृदा की कुछ सेमी मोटी परत के निर्माण में हजारों साल लग जाते हैं।
- पेडालॉजी मृदा विज्ञान एवं पेडालॉजिस्ट एक मृदा वैज्ञानिक होता है।
एक मृदा तभी परिपक्व होती है जब मृदा-निर्माण की सभी प्रक्रियाएँ लंबी समयावधि तक परिच्छेदिका विकास करते हुए कार्यरत रहती हैं। थोड़े समय पहले (recently ) निक्षेपित जलोढ़ मिट्टी या हिमानी हिल से विकसित मृदाएँ युवा/ तरुण (young) मानी जाती हैं तथा उनमें संस्तर (horizon) का अभाव होता है अथवा कम विकसित संस्तर मिलता है।
संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में मिट्टी के विकास या उसकी परिपक्वता के लिए कोई विशिष्ट (specific) कालावधि नहीं है।परोक्ष रूप से मानव भी मिट्टी को प्रभावित करता है। उसके द्वारा धरातल पर किये गये परिवर्तनों से कहीं तो मृदा-परिच्छेदिका के विकास को और कहीं मृदा अपरदन को अधिक बल मिलता है।
मानव ने प्राकृतिक भू-दृश्यों के बीच सांस्कृतिक भू-दृश्यों का निर्माण
किया है, जिसका असर धरातलीय मिट्टी पर भी पड़ता है। राइजोबियम (Rhizobium) एक प्रकार का बैक्टीरिया
है जो फलवाले (Leguminous) पौधों की जड़ ग्रंथिका में रहता है तथा मेजबान (host) पौधों के लिए लाभकारी
नाइट्रोजन निर्धारित करता है।
मिट्टियों का वर्गीकरण
Soil Classification
मृदा विज्ञान के विकास
में रूसी भूगर्भशास्त्री वी. वी. डकाचेच का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। संयुक्त
राज्य अमेरिका में सी. एफ. मारबुट ने 1938 ई० में मृदा वर्गीकरण की व्यापक योजना (USDA System) प्रस्तुत की, जिसमें
उन्होंने आनुवंशिकी कारकों के आधार पर विश्व की मृदाओं को तीस वृहत्तर भागों में बाँटा
एवं इसे तीन वर्गों क्षेत्रीय, अंतःक्षेत्रीय एवं अक्षेत्रीय में रखकर विवेचित किया।
ये हैं_
1. क्षेत्रीय मिट्टियाँ
क्षेत्रीय मिट्टियाँ पृथ्वी पर अक्षांशीय पेटियाँ
बनाती हैं। इन मिट्टियों में मृदा संस्तरों का पूर्ण विकास मिलता है अर्थात् वह मिट्टी
अपनी आधारित चट्टान से संबंधित होती है। इन्हें दो प्रमुख वर्गों - (1) पेडल्फर एवं
(ii) पेडोकल में तथा पुनः
बारह मुख्य प्रकार में बाँटा गया है। विश्व के जलवायु प्रदेशों, प्राकृतिक वनस्पतियों
व मिट्टियों में गहरे संबंध है।
(i) पेडल्फर मिट्टियां [ एल्युमिनियम (AI) और लौह तत्व (Fe) की पर्याप्तता से युक्त], इसके निम्न वर्ग हैं-
(a) धूसर पोडजोल ये उप-आर्कटिक जलवायु प्रदेश के टैगा या कोणधारी वनों में मिलती हैं। ये अम्लीय
(pH मान 4) मिट्टी है
व कृषि के लिए अनुपयुक्त होती है।
(b) धूसर-भूरी पौडजोल: यह मध्य अक्षांशीय पतझड़ वनों की पेटी में पायी जाती है। इसमें
ह्यूमस की मात्रा अधिक होती है। खाद व उर्वरकों के प्रयोग एवं फसलों के शस्यावर्तन
से मिट्टी काफी उपजाऊ बनी रहती है। डेयरी उद्योग एवं मिश्रित कृषि के लिए यह उपयोगी
मिट्टी है।
(c) लाल-पीली पोडजोल ये मिट्टियाँ उपोष्ण आर्द्र, जलवायु प्रदेशों में पॉइजोलाइजेशन
व लैटेराइजेशन प्रक्रिया से निर्मित होती हैं। इसमें ह्यूमस की कमी होती है।
(d) लाल पोडजील या टेरारोशा भूमध्य सागरीय प्रदेशों और चूना क्षेत्रों में
मिलने वाली यह मिट्टी फेरस ऑक्साइड (Fe2O3) के कारण लाल रंग की
होती है। इसमें ह्यूमस की कमी होती है।
(e) सैटेराइट मिट्टी उच्च तापमान एवं प्रचुर वर्षा वाले उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों में, निक्षालन क्रिया
की अधिकता से यह मिट्टी निर्मित होती है। ह्यूमस की यहाँ अधिक मात्रा में निर्माण होता
है, परन्तु जीवाणुओं द्वारा अधिक उपयोग एवं निक्षालन के कारण ह्यूमस कम मात्रा में
बचता है। इस मिट्टी के ऊपरी भागों में Fe2O3, तथा Al के लवणों की अधिकता होती है।
(ii) पेडोकल मिट्टी (कैल्शियम (Ca) की पर्याप्तता] इसके निम्न उपवर्ग है-
(a)प्रेयरी मिट्टी : शीतोष्ण आर्द्र प्रदेशों में लंबी घासभूमियों की यह मिट्टी चरनोजेम और
धूसर बादामी पोडजोल के मिश्रित गुणों वाली मृदा है। ह्यूमस की प्रचुरता के कारण इसका
रंग काला भूरा होता है। यह उपजाऊ मिट्टी है। उत्तरी अमेरिका के पम्पास एवं हंगरी के
पुस्टाज एवं ऑस्ट्रेलिया के डाउन्स घासभूमियों में यही मिट्टी मिलती है।
(b) चरनोजेम : यह सर्वाधिक उपजाऊ और भुरभुरी मिट्टी है। इसमें
उर्वरक एवं सिंचाई की आवश्यकता काफी कम पड़ती है। छोटी घास वाले स्टेपी मैदानों में
यह मिट्टी पायी जाती है। ह्यूमस की अधिकता के कारण इसका रंग काला होता है। इसकी निचली
परत में चूने की भी पर्याप्त मात्रा होती है ।
(c) चेस्टनट : चरनोजेम मिट्टी के शुष्क भागों में पायी जाने वाली
यह गहरे भूरे रंग की मिट्टी है। इसमें ह्यूमस की मात्रा चरनोजेम की अपेक्षा कम होती
है ।
(d) लाल-भूरी मिट्टी व
लाल चेस्टनट : यह मिट्टी सवाना
प्रदेश के अर्द्धशुष्क भागों में पायी जाती है ।
(e) धूसर मरुस्थलीय या
सायरोजेम मिट्टी : मध्य अक्षांशीय शुष्क
मरुस्थलों में पायी जाने वाली यह क्षारीय मिट्टी (pH मान 8 से अधिक) है। इसमें चूना सतह के ऊपर जमा रहता
है।
(f) लाल मरुस्थलीय मिट्टी
: यह उष्णकटिबंधीय शुष्क मरुस्थलीय
प्रदेशों की मिट्टी है। चूना का सतह के निकट पाया जाना एवं ह्यूमस का अभाव इसकी विशेषता
है।
(g) टुंड्रा प्रदेश की
मिट्टी : यह अल्पविकसित मृदा
है जिसमें जैव तत्वों व महत्वपूर्ण खनिजों का अभाव पाया जाता है ।
2. अंतः क्षेत्रीय (Intra-zonal ) :
यह स्थानीय रूप में उत्पन्न होती हैं, परन्तु उनमें विभिन्न
रासायनिक क्रियाओं के कारण आधारी चट्टानों की
गुणवत्ता में अन्तर मिलता है। इन मिट्टियों को तीन वर्गों में
विभाजित कर देखा जा सकता है। ये निम्न हैं-
(i) दलदली मिट्टी (Hydromorphic Soil)
: इसके अन्तर्गत पीट, चारागाही
(मीडो), बॉग व प्लेनोसोल मिट्टियाँ शामिल की जाती हैं।
(ii) लवणतायुक्त मिट्टी (Halomorphic
Soil) : इसमें लवणीय (saline), क्षारीय (solonetz), सोलोथ (soloth), मिट्टियाँ शामिल होती
हैं।
(iii) कैल्शियमयुक्त मिट्टी (Calcimorphic
Soil) : इसके अंतर्गत रेंडजिना, टेरारोसा एवं टेरारोक्सा मिट्टियाँ आती
हैं ।
3. अक्षेत्रीय (Azonal ) :
यह मिट्टी स्थानीय
उत्पत्ति नहीं रखती है तथा अपरदन के कारकों के द्वारा परिवहित कर लायी जाती है। अतः
इसमें आधारी चट्टान से पूर्णतः भिन्न पारिवका मिलती है। विषम पारिवका रखने वाली इस
मिट्टी में संस्तरों का विकास ठीक से नहीं मिलता। अक्षेत्रीय मिट्टियों को लिथोसॉल
एवं रेगोसॉल प्रकारों में बांटा जाता है। इसे दो मुख्य प्रकारों में बाँटा जाता है
(i) लिथोसॉल मिट्टियाँ: इसमें कंकड़-पत्थर की अधिकता होती है। भावर प्रदेश की मिट्टी,
पर्वतपदीय क्षेत्रों की पथरीली मिट्टी इसके अंतर्गत आती
है।
(ii) रेगोसॉल मिट्टियाँ:
इसमें जलोढ़, हिमोढ़ और लोएस
मिट्टियाँ शामिल की जाती हैं।
CSCS-1960 का वर्गीकरण
अमेरिकी मृदा वैज्ञानिकों
ने सन् 1960 ई० में मिट्टियों के वर्गीकरण की एक नयी विस्तृत योजना व्यापक मृदा वर्गीकरण
तंत्र (CSCS Comprehensive Soil Classification System) प्रस्तुत की।
इसे मृदा वर्गीकरण विज्ञान
(Soil Taxonomy) भी कहा जाता है। इस योजना के अन्तर्गत विश्व की समस्त मिट्टियों को 10 श्रेणी,
47 उपश्रेणी और 185 वृहत् वर्गों में बाँटा गया है।
अविकसित मृदा संस्तरों वाली मिट्टियाँ
1. एंटीसोल (Entisol): यह एजोनल या अपाश्विक
मिट्टी के समान होती है।
2. इंसेप्टीसोल (Inceptisol): यह टुंडा, अल्पाइन
क्षेत्र तथा बाढ़ क्षेत्र की मिट्टी के
समान है।
3. हिस्टोसोल (Histosol): यह अम्लीय एवं कुप्रवाहित
मिट्टी है, जो दलदली या बोग मिट्टी
के समान होती है। यह जैविक परतों से संपन्न मिट्टी है।
पूर्ण विकसित संस्तरों वाली क्षेत्रीय मिट्टियाँ
1. ऑक्सीसोल (Oxisol): इसमें Fe एवं Al ऑक्साइडों की प्रचुरता होती है। यह उष्णकटिबंधीय भागों की मिट्टी
है, जो निक्षालन प्रक्रिया से निर्मित
होती है।
2. अल्टीसोल (Ultisol): यह उष्ण और उपोष्ण प्रदेश की मिट्टियाँ हैं जो उपजाऊ तथा लाल, पीली एवं भूरी होती हैं।
3. वर्टीसोल (Vertisol): यह रेगुर या रेंडजीना मिट्टी के समान है। इसमें सूखने पर दरारें पड़ जाती हैं, जबकि
गीले होने पर यह चिपचिपी हो जाती है। मृत्तिका की अधिकता के कारण इस मिट्टी में आर्द्रता
धारण सामर्थ्य अधिक होती है।
4. अल्फीसॉल (Alfisol): यह आर्द्र और उपाई
प्रदेशों की मिट्टियाँ हैं। निक्षालन के कारण इसमें Al एवं Fe की अधिकता होती है, जिससे यह अधिक अम्लीय हो जाती
है। ह्यूमस की कमी के कारण इसकी उर्वरता कम रहती है।
5. स्पोडोसॉल (Spodosol): यह पोडजॉल समूह की
मिट्टियों के समान है। टैगा क्षेत्रों में मिलने वाली यह मिट्टी अत्यधिक अम्लीय होती
है।
6. मोलीसॉल (Molisol): यह विश्व की सर्वाधिक
उपजाऊ मिट्टी है एवं चरनोजेम मिट्टी के समान होती है। प्रेयरी व चेस्टनट मिट्टियों
को भी इसी समूह में रखा जा सकता है। यह मिट्टी काली व गहरे रंग की होती है। इसमें ह्यूमस
की पर्याप्त मात्रा रहती है।
7. एरिडोसॉल (Aridosol): यह रेगिस्तानी प्रदेशों
की लवणीय एवं क्षारीय मिट्टी है। इस मिट्टी में सतह के निकट सोडियम अथवा कैल्शियम की
परत मिलती है तथा ह्यूमस एवं जल का सर्वथा अभाव रहता है।
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